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रहता है। यदि कोई भव्य जीव निश्चयधर्मरूप परिणमन करते समय व्यवहारधर्म की अपेक्षा करे तो वह परसापेक्ष होने से निश्चयधर्म ही नहींकहलायेगा।
यहाँ इसकी पुष्टि में हमने नियमसार की जिन दो गाथाओं को उद्धत किया था, उनमें से १४ वी गाथा के उत्तरार्द्ध में पर्यायों को दो प्रकार की बतला करके, उनका स्वरूप निर्देश करते हुए यह स्पष्ट कहा है कि एक स्व-पर सापेक्ष पर्याय होती है और दूसरी परनिरपेक्ष पर्याय होती है । इनका विशेप स्पष्टीकरण १५ वी गाथा से भी हो जाता है। नर, नारक, तिर्यंच और देव पर्यायों को स्वपरसापेक्ष होने से जहां विभाव पर्याय कहा गया है, वहीं कर्मउपाधि से रहित स्वभाव के मालम्बन से उत्पन्न हुई पर्यायों को स्वभावपर्याय कहा गया है ।
पूर्वपक्ष ने ११ वीं गाथा का अर्थ करते हुए भी यही लिखा है कि - "इन्द्रिय रहित और असहाय केवलज्ञानोपयोग तो स्वभावं ज्ञानोपयोग है तथा प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से व्यवहार ज्ञानोपयोग दो प्रकार है ।" सो पूर्वपक्ष के द्वारा किये गये इस अर्थ से भी हमारे कथन का ही समर्थन होता है, क्योंकि हमारा यही तो कहना है कि स्वभाव पर्याय परनिरपेक्ष होने से दूसरे को निमित्त किए बिना ही उत्पन्न होती है । परमार्थ से देखा जाय तो व्यवहारधर्म उसका साधक नहीं माना जा सकता।
आगम में जहां भी व्यवहारधर्म को साधक और निश्चयधर्म को साध्य कहा गया है, वह केवल असंभूत व्यवहारनय से ही कहा गया है । पूर्वपक्ष को चाहिए कि वह नयविभाग को समझकर परमार्थ से दिये गये हमारे उत्तर के खण्डन की चेष्टाएँ न पकड़कर जो यथार्थ है, उसे स्वीकार करे। आगे उस पक्ष ने हमारे १३ वीं और १४ वीं गाथा के अर्थ के प्रसंग से जो प्रापत्तियां उपस्थित की हैं, उनमें कोई सार नहीं है। यथा
(१) हमने अपने अर्थ में “केवल" शब्द का अर्थ "मात्र" नहीं किया है। उसका केवलदर्शनोपयोग करने में हमें कोई आपति नहीं है । उक्त गाथा का हमने जो अर्थ किया है, उससे भी यही अर्थ फलित होता है। उसमें कोई बाधा नहीं पाती।
(२) जब कि १३ वी गाथा में दर्शनोपयोग के स्वभावपर्याय और विभावपर्याय - ये दो भेद करके यह बतलाया गया है कि जो पर्याय इन्द्रियरहित और असहाय अर्थात् पर की सहायता से रहित होती है, वह स्वभावपर्याय है । इस प्रकार इस कथन से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि गाथा १३ के उत्तरार्द्ध का गाथा १४ के उत्तरार्द्ध से निश्चित सम्बन्ध है। हमारा यही कहना है कि जितनी भी स्वार्थपर्यायें होती हैं, वे सव अन्य निरपेक्ष ही होती हैं । गाथा १३ के उत्तरार्द्ध में स्वभावपर्याय के लिए इन्द्रियरहित और असहाय दो पद आये हैं, सो इन पदों से भी वही अर्थ फलित होता है । गाथा १४ के उत्तरार्द्ध में जो निरपेक्ष पद पाया है, सो वह भी परनिरपेक्ष के ही अर्थ में
प्रायां है।