Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 238
________________ २०० यदि वह पक्ष यही मानता हो तो उसे यही लिखना चाहिए था। इस प्रसंग से एक बात हमें अवश्य कहनी है और वह यह कि वह पक्ष स्वयं ही व्यवहारधर्म को जव मात्र शुभभाव ही लिख रहा है, ऐसी अवस्था में उसे यह भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि शुभभाव तो प्रोदयिक भाव है - ऐसी अवस्था में वह संवर-निर्जरा का हेतु कैसे माना जा सकता है, क्योंकि मोहनीयकम जनित जितने भी प्रौदयिक भाव हैं, वे सब स्वयं संसाररूप होने से प्रानव-वन्ध के ही कारण हैं। हमने कहीं भी शुभभावों को व्यवहार हेतु लिखकर उन्हें कथनमात्र नहीं कहा है। यह उस पक्ष का हमारे ऊपर केवल आक्षेप मात्र है । जीव के राग भाव यथार्थ हैं, वे कथन माम नहीं हैं, परसापेक्ष होने से उन्हें व्यवहारहेतु कहा जाता है, इतना अवश्य है। उसका खुलासा यह है कि जीव ही स्वयं पर में इष्ट या अनिष्ट बुद्धि करके उन्हें उत्पन्न करता है । कर्म के उदयादि परपदार्थ हैं, वे उन्हें उत्पन्न नहीं करते, फिर भी उनमें से पर के निमित्त से उत्पन्न हुए हैं, ऐसा व्यवहार.घटित हो जाता है, मात्र इसीलिए वे परसापेक्ष कहे जाते हैं। हमने त. च. पृ. १२४ से लेकर १२८ तक के पृष्ठों पर जो कुछ लिखा है, वह सब भागम प्रमाणों के साथ ही लिखा है । हमें खेद है कि वह पक्ष वस्तुस्थिति को नहीं समझ रहा है और अपने कल्पित मतों के आधार पर आगम का विपर्यास करके अपने मत की पुष्टि करता दृष्टिगोचर होता है और चरणाणुयोग शास्त्र में व्यवहारधर्म की अपेक्षा मोक्षमार्ग की प्ररूपण की गई है - ऐसा यहाँ समझना चाहिये। रत्नकरण्डश्रावकाचार - . . इस शास्त्र में मुख्यतया से श्रावकाचार का विवेचन किया गया है, क्योंकि श्रावकधर्म प्रात्मा की प्राप्ति में निमित्त मात्र है, इसलिये आगम में इसे व्यवहारधर्म के रूप में स्वीकार किया गया है। रत्नकरण्डश्रावकाचार के समान मुनित्राचार का विवेचन करनेवाला मूलाचार है। उसमें मुल्यता से मुनि-प्राचार का विवेचन किया गया है। अध्यात्म की पूर्ण प्राप्ति में यह भी निमित्त मात्र है. इसलिये इसकी भी परिगणना व्यवहारधर्म में की जाती है। यद्यपि अध्यात्मशास्त्र अनुपचरित और अभेद रत्नत्रय का विवेचक आगम शास्त्र है, इसलिये इसकी तो केवल अध्यात्मशास्त्र में परिगणना होती है और मूलाचार तथा श्रावकाचारों के अनुसार प्रवृत्ति को मोक्षमार्ग में व्यवहारहेतुता होने से इनकी व्यवहारनय से अध्यात्मशास्त्रों में परिगणना की जाती है। इसी ष्टि से इन शास्त्रों को भी अध्यात्मशास्त्रों में परिगणित किया जाता है। ' साध्य-साधक भाव : आगम में साध्य-साधक भाव का वो दृष्टियों से विचार किया गया है - एक शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से और दूसरा सद्भूत या असद्भूत व्यवहारनय. की दृष्टि से । शुद्ध निश्चयनय से स्वभावभूत ज्ञायकस्वभाव एक आत्मा ही साध्य है और वही साधक है । इसी अर्थ को स्पष्ट करते हुए समयसार कलश में कहा भी है -

Loading...

Page Navigation
1 ... 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253