Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 224
________________ १८६ श्रागे त. च.पृ. εε में सम्यग्दृष्टि को प्रबंधक किस रूप में कहा है, इसका विपद रूप से स्पष्टीकरण हमने पहले किया ही है, परन्तु वह स्पष्टीकरण को पुण्यभाव रूप जीवदया को लक्ष्य में रखकर स्वीकार करता है, सो उसका ऐसा समझना ठीक नहीं है, क्योंकि पुण्यभाव रागरूप होता है और सम्यक्हष्टि ज्ञानभावरूप । सम्यग्दृष्टि के शुभभाव होता है यह और बात है और श्रात्मा को सम्यक्त्व के कारण स्वभावरूप स्वीकार करना और बात है । इससे फलित हो जाता है कि पुण्यभाव श्रात्मा का स्वभाव नहीं है, परभाव है । हमने त. चर्चा पृ. १०० पर जो मात्र दया को वीतराग परिणामस्वरूप लिखा है, वह ठीक ही लिखा है, क्योंकि जिन सहस्त्रनाम में वीतराग -जिन को जो दयाध्वज कहा गया है, वह इसी आधार पर जीवदया को जो वीतराग परिणामरूप सिद्ध करना चाहता है, वह ठीक नहीं है, क्योंकि दया और जीवदया में बहुत अन्तर है । दया सामान्य शब्द है और जीवदया विशेष । दया से स्वदया का भी ग्रहण हो जाता है परन्तु जीवदया से स्वदया का ग्रहण नहीं होता, परदया का ही ग्रहरण होता है । समीक्षक को हमारे कथन पर सम्यक्प्रकार से दृष्टिपात करने के बाद ही अपने इष्टार्थ को फलित करना था । श्रागे जो उसका कहना है कि हमने पुण्यभूत जीवदया से पृथक् वीतराग परिणतिरूप जीवदया को मान्य कर लिया है, सो उसका ऐसा मानना ठीक नहीं है । इसका विशेष खुलासा इसी पृष्ठ में किया ही है । इसी प्रसंग में समीक्षक ने जो भी कुछ लिखा है वह सव उसका अपना विश्लेषण है, आगम नहीं । उसमें हमें और विशेष कुछ कहना नही । त. चर्चा पृष्ठ १०० पर हमारे कथन के उत्तर में उसने जो यह लिखा है कि - "परन्तु इसका यह स्वभावभूत ज्ञानस्वरूप परिणमन यथायोग्य कर्म की क्षपणापूर्वक ही होता है" श्रादि सो उसका ऐसा लिखना व्यवहार कथन है । परमार्थ यह है कि जब स्वयं यह जीव अपने उपयोग में स्वभाव का आलम्बन कर स्वभावरूप ज्ञानस्वरूप परिगमन करता है, तब कर्म की स्वयं क्षपणा होती है । ऐसा इन दोनों का योग है । कोई किसी अन्य के आशय से नहीं होता, यह वस्तुस्वभाव है । अन्य सव कथन अपरमार्थभूत है । शंका ३ तीसरे दौर की समीक्षा का समाधान समीक्षक लिखता है कि "आगम पुण्यरूप जीवदया से पृथक् व्यवहारधर्मरूप जीवदया को भी मान लिया गया है" आदि। सो इसका समाधान यह है कि श्रागम में वीतराग शब्द का पर्यायवाची दया शब्द भी श्राया है, जीवदया नहीं, परजीवों की दया का बोध होता है, जो परसापेक्ष होने से जिसे श्रागम में मात्र पुण्यभाव या शुभभाव में ही गर्भित किया गया है | अतएव उसे बन्ध का ही कारण समझना चाहिये, संवर- निर्जरा का कारण नहीं | क्योंकि जीवदया से हमने शुभभावों की जो प्रशस्त राग के साथ व्याप्ति बताई है वह आगम बताई है । यथा - अनुसार ही

Loading...

Page Navigation
1 ... 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253