Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 228
________________ १६० (४) हमने जो कुछ भी पूर्वपक्ष या समीक्षक के कथन को ध्यान में रखकर लिखा है, वह हमारी दूषित वृत्ति का परिणाम नहीं है, किन्तु जब वह सम्यग्दृष्टि और मुनि के जीवदया रूप व्यवहारधर्म को निश्चय की कोटि में रखकर उससे (व्यवहारधर्म से) परमार्थ से संवर-निर्जरा का कथन करता है, तव हमें यही लिखने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि पूर्वपक्ष या समीक्षक संभवतः व्यवहारधर्म को निश्चयधर्म के समान ही मान रहा है। जहां कहीं सम्यम्हप्टि के व्यवहारधर्म रूप पुण्यभाव को मोक्ष का कारण लिखा भी है, वह निमित्तपने से लिखा गया है अर्थाद उपचार से लिखा गया है। (५) प्रवचनसार गाथा है और ११ के आधार पर हमने जो भी निवेदन किया है, वह हमने बुद्धिपूर्वक ही किया है । व्यवहारधर्म और व्यवहारधर्म का अंश इन दोनों में क्या अन्तर है, इसका वहां पूर्वपक्ष ने कोई खुलासा नहीं किया है। इतना अवश्य है कि उस पक्ष ने इतना मान लिया है कि "अशुभ से निवृत्तिपूर्वक होनेवाला शुभभावरूप व्यवहारधर्म एक अपेक्षा से वह संवरनिर्जरा का कारणं है।" सो उसका यह कथन उपचार से ही जानना चाहिये, किन्तु इस पंरा में समीक्षक ने जो कथन किया है, वह पुनरुक्त होने से, अलग से उसपर विचार करना इष्ट नहीं समझा गया। दूसरे उन वातों का उत्तर पहिले ही दिया गया है।। (६) त. च. पृ. ११३ पर जयघवला के "सुह-शुद्ध परिणामेहि कम्मक्खयाभावे तक्खयागुवत्तीदो" इस वाक्य का जो हमने खुलासा किया है, वह यथार्थ है। शुभ परिणाम और शुद्ध परिणाम क्रियावती शक्ति का परिणमन नहीं है, किन्तु वे दोनों ही परिणाम यहां भावरूप लिये गये हैं। इसलिए यह स्पष्ट है कि स्वभाव के आलम्बन से जो शुद्ध परिणति होती है, वह तो निश्चय से कर्मक्षय का कारण है ही और उपचार से इस शुभ परिणति को भी कर्मक्षय का कारण कहा जाता है । यहां उपचार का प्रयोजन यह है कि शुभ परिणति रागपूर्वक होती है और राग पराश्रितभाव है, वह ज्ञानी के विकल्प की भूमिका में अवश्य होता है। यह प्ररूपित करना ही उसका प्रयोजन है। इसलिए परमार्थ से वह यात्रव और वन्वरूप होने से उन दोनों का ही कारण है । समयसारजी में कहा भी है कि रत्तो बंधदि कम्म मुचदि कम्मं विरागसंपत्तो ॥१५० ॥ (७) शुभ भाव को यदि वह निर्विवादरूप से परमार्थ से प्रास्रव-बन्ध का कारण मान लेता तो हमें पंचास्तिकाय गाथा १४७ को उपस्थित कर स्पष्टीकरण करने की आवश्यकता नहीं पडती, किन्तु जव वह शुभभावरूप व्यवहारधर्म को परमार्थ से संवर-निर्जरा का कारण मानता है तो ऐसी अवस्था में आगम प्रमाण देकर यह सिद्ध करना पड़ रहा है कि किसी प्रकार का और किसी का व्यवहारधर्म क्यों न हो, वह परमार्थ से एकमात्र आस्रव और बन्ध का ही कारण है, क्योंकि वह प्रास्रव-वन्धस्वरूप है। . (८) समीक्षक ने इस कथन में जितना कुछ लिखा है, वह मात्र पुनरुक्त होने से उसपर विचार नहीं किया जा रहा है। इतना अवश्य कहना है कि "अशुद्ध से निवृत्तिपूर्वक शुभ में प्रवृत्ति

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