Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 234
________________ १६६ नौर योग संक्रान्ति शुभोपयोग में ही घटित होती है, शुद्धोपयोग में नहीं, सो उसका ऐसा लिखना भी ठीक नहीं है, क्योंकि श्रात्माश्रितपने से परवस्तु में इष्ट अनिष्ट बुद्धि के हुए बिना भी उपयोग व योग के बदलने से विषय और परिस्पंद का बदलना सम्भव है, क्योंकि क्षायोपशमिक ज्ञान कां काल अन्त-मुहूर्त होने से उपयोग नियम से बदलता है । जितना सातवें से लेकर दसवें गुणस्थान तक का काल श्रागम में बतलाया है, उतना ही एक उपयोग का काल हो, ऐसा एकान्त नियम नहीं है, उससे कम है ! दूसरी बात यह है कि पंचास्तिकाय में जो भावसंवर का लक्षरंग किया है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि परवस्तु में इष्टानिष्ट बुद्धि के नहीं होने पर चतुर्थ गुणस्थान में भावसंवर की प्राप्ति होने में कोई बाधा नहीं श्राती । पंचास्तिकाय का वह लक्षरण इस प्रकार है - मोह-राग-द्वेष परिणामनिरोधी भावसंवरः । गा० १४२ मोह, रांग और द्वेषरूप परिणामों का निरोध होना भावसंवंर है । इससे भी यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि भावसंवर अर्थात् स्वानुभूति या शुद्धोपयोग चौथे प्रादि गुणस्थानों में भी होता है । यदि वह कहे कि चौथे गुणस्थान में स्वानुभूति नहीं होती, सो उसका ऐसा कहना श्रागमविरुद्ध है; क्योंकि चौथे गुणस्थान में स्वानुभूति होती है, इसका स्पष्ट उल्लेख करते हुए प्रवचनसार गाथा २६७ की तत्त्वप्रदीपिका टीका में लिखा है : असंयतस्य च यथोदितात्मतत्व प्रतीतिरूपं श्रद्धानं यथोदितात्म तत्वानुभूतिरूपं ज्ञानं किं कुर्यात् । ततः संयम शून्यात् श्रद्धानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धिः । -असंयत के यथोक्त श्रात्मतत्व की प्रतीति रूप श्रद्धान तथा यथोक्त श्रात्मतत्व की अनुभूतिरूप संयमशून्य ज्ञान, संयम के अभाव में क्या कर सकता है ? इसलिए केवल संयमशून्य: श्रद्धान तथा ज्ञान इन दोनों से भी सिद्धि नहीं होती । P A इससे स्पष्ट है कि आत्मानुभूतिरूप शुद्धोपयोग चतुथं श्रादि गुणस्थानों में भी संभव है । सातवें गुणस्थान से तो वह नियम से ही होता है ! : . यद्यपि धवला पु. १३ में श्राचार्य वीरसेन ने दसवें गुरणस्थान तक धर्मध्यान का उल्लेख अवश्य किया है, पर इस पर से कोई यह समझे कि दसवें गुणस्थान तक शुद्धोपयोगरूप धर्मध्यान ही होत, है, सो उक्त कथन का यह श्राशय नहीं है, क्योंकि जैसा कि हम पहले संकेत कर आये हैं कि धर्मध्यान सविकल्प और निर्विकल्प के भेद से दो प्रकार का होता है । उनमें से छठवें गुणस्थान तक तो दोनों प्रकार का धर्मध्यान संभव है । पर सातवें गुणस्थान से मात्र निर्विकल्प धर्मध्यान ही होता है । और ऐसा स्वीकार करने पर सभी श्रागमों में ध्यान के उत्तर दो भेद स्वीकार कर लेने पर भी एकरूपता बन जाती है । साथ ही निर्विवाद ध्यान के काल में अर्थ, व्यंजन और योग की संक्रांति बन जाती है - ऐसा मानने में भी कोई बाधा नहीं श्राती । इतना अवश्य है कि घवला पुस्तक १३ में राग की अपेक्षा दसवें गुरणस्थान तक धर्मध्यान कहा है और सर्वार्थसिद्धि आदि में स्वाश्रितपनें की

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