Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 233
________________ १६५ है और निर्विकल्प धर्मध्यान का नाम शुद्धोपयोग भी है । जहाँ कहीं पागम में स्वानुभूति या प्रात्मानुभूति शब्द का प्रयोग हुआ है, उससे भी शुद्धोपयोग को भिन्न नहीं जानना चाहिये जहा, भी दसवें गुणस्थान तक धर्मध्यान कहा गया है वहां वह कषायांश की अपेक्षा ही कहा गया है। । समीक्षक का स. पृ. २३९ में जो यह कहना है कि "धर्मध्यान में तो शुभोपयोग ही होता है, साथ ही पृथक्त्ववितर्क शुक्लध्यान में शुभोपयोग ही होता है, उसमें भी शुद्धोपयोग नहीं होता। अन्यथा वहाँ अर्थ, व्यंजन और योग की संक्रान्ति होना असंभव होगा। पृथक्त्वविर्तक शुक्लध्यान शुद्धोपयोग भी माना जाये और अर्थ; व्यंजन और योग की संक्रान्ति भी मानी जाये; ये दोनों वाते प्रखण्ड और निर्विकल्प शुद्धोपयोग करते हुए संभव नहीं है।" . . समीक्षक का: ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि भावसंवर को दृष्टि में रखकर जो यह लिखा है कि शुद्ध निश्चयनय में शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव ध्येय होता है, अतः शुद्ध ध्येय होने से, शुद्ध का अवलम्बन होने से और शुद्ध आत्मस्वरूप रूप होने से शुद्धोपयोग बन जाता है । यथा - .. अत्र तु शुद्धनिश्चये शुद्धबुद्ध कस्वभावो निजात्मा ध्येयस्तिष्ठतीति, शुद्धध्येयत्वाच्छुदावलम्बनत्वाच्छद्धात्मस्वरूपसाधकत्वाच्च शुद्धोपयोगी घटते। .. ... - 'यह भाव संवर का स्वरूप है। इसकी प्राप्ति चौथे 'गुणस्थान आदि सभी गुणस्थानों में होती है। अन्यथा स्वभाव का अवलन्वन लिये विना कर्मों की क्षपणों नही हो सकती। आगम में यह स्पष्टरूप से स्वीकार किया गया है कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के काल में स्वानुभूति नियम से होती है। इसी बात को ध्यान में रखकर प्रवचनसार गा. २३७ की तत्वप्रदीपिका टीका में लिखा है - असंयतस्य च यथोदितात्मतत्त्वप्रतीतिस्वरूपं श्रद्धानं यथोदितात्मतत्वानुभूति रूपं ज्ञानं वा किं कुर्यात् । ततः संयमशून्यात श्रद्धानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धिः । . असंयत के यथोक्त आत्मतत्त्व की प्रतीतिरूप श्रद्धान और यथोक्त आत्मतत्त्व की अनुभूतिरूप ज्ञान क्या करेगा? इसलिये संयमशून्य श्रद्धान-ज्ञान से सिद्धिं नहीं होती। यह एक ऐसा प्रमाण है, जिससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि आत्मानुभूति चौथे गुणस्थान में नियम से होती है और हम यह पहले ही स्पष्ट कर आये हैं कि आत्मानुभूति यह नाम भेद होने पर • भी शुद्धोपयोग ही है और भावसंवर भी उसी का नाम है, क्योंकि भावसंवर के विषय में प्राचार्यों ने यह स्पष्ट' लिखा है कि जिसमें शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के भाव नहीं होते, उसका नाम भावसंघर है। यथा- .:. . . . . · · शुभाशुभभावनिरोधः संवरः अनगारधर्मामृत, अ. २ श्लोक - १ पंचास्तिकाय की टीका में भी यही बात कही गई है। .: इसलिये समीक्षक का जो यह कहना है कि दसवें गुणस्थान तक शुभोपयोग-ही होता है,, सो-उसका ऐसा लिखना एकान्त से भागमानुकूल नहीं है । उसका जो यह कहना है कि मर्य, व्यंजन

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