Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 230
________________ १८२ किया है, वह केवल उसकी अपनी कल्पना मात्र है, रहा है। भाववती और क्रियावती शक्ति क्या है समझने के लिये शास्त्रीय दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है । क्योंकि इन बातों को वह बारबार लिखता और जीव का वीतरागभाव क्या है ? इनको (१२) त. च. पृ. ११६ पर हमने जो यह लिखा है कि "हमें शुभभावों की अवान्तर परिणतियों का पूरा ज्ञान हो या न हो" इत्यादि । इसपर उसका कहना है कि "वह भी शुभभाव से अतिरिक्त उक्त शुभ-शुद्धभावरूप व्यवहारधर्म को न मानने का ही परिणाम है" इत्यादि । सो उसके ऐसे कथन से मालूम पड़ता है कि वह शुभभाव को दो जाति का मानता है । एक शुभभाव वह जो पुण्यरूप होता है और दूसरा शुभभाव वह जो व्यवहारधर्म होता है । इसके साथ ही वह ऐसे व्यवहारधर्म को भी मानता है जो शुभ शुद्धभावरूप होता है । हमने श्रागम में यह तो पढ़ा है कि शुभभाव के असंख्यात भेद होते हैं, परन्तु यह नहीं पढ़ा कि शुभभाव दो जातियों में भी विभक्त होता है । और साथ ही यह भी नहीं पढ़ा कि शुद्धभाव स्वाश्रित होते हुए भी व्यवहारधर्म की जाति का होता है । उस पक्ष की उक्त बातों को पढ़कर ऐसा लगता है कि वह अपने मत की पुष्टि के लिये एक नये श्रागम की सृष्टि कर रहा है । यद्यपि हम यह मानते हैं कि मिथ्यादृष्टियों के भी पुण्यभाव होता है, परन्तु जैसे वह प्रास्रव और बन्ध का कारण माना गया है, वैसे ही सम्यग्दष्टि का व्यवहारधर्म रूप पुण्यभाव भी परमार्थ से श्रात्रव और बन्ध का कारण माना गया है । समीक्षक कहेगा कि भावसंग्रह गा. ४०४ में सम्यग्दृष्टि के पुण्य को जो संसार का कारण नहीं कहा है सो " वह इसलिये नहीं कहा है कि सम्यग्दष्टि पुण्य करते-करते मोक्ष चला जायगा ।" उसका श्राशय केवल इतना ही है कि सम्यग्दृष्टि के जो पुण्यभाव होता है, वह अल्प स्थिति अनुभाग का श्रास्रव - बन्ध करनेवाला होता है, तथा उस पुण्य भाव से पापकर्मों का आसव-बन्ध न होकर विशेष पुण्य प्रकृतियों का ही आस्रव बन्ध होता है, और अनुभाग बन्ध विशेष होता है । सो इसका इतना ही अर्थ है कि सम्यग्दष्टि का जो व्यवहारधर्म होता है वह भले ही अल्प स्थिति वाला हो, पर है वह परमार्थ से संसार कारण ही । (१३) समीक्षक अपने को लक्ष्य में रखकर लिखता है कि "उसने कहीं पर भी यह नहीं कहा है कि रागभाव बन्ध का कारण नहीं है तथा यह भी नहीं कहा है कि रागभाव मोक्ष का कारण है ।" सो उसका ऐसा लिखना ठीक नहीं है, क्योंकि जब वह सम्यग्दृष्टि के पुण्य को मोक्ष का कारण मान लेता है, तब उसके मत से रागभाव भी मोक्ष का कारण सिद्ध हो जाता है, क्योंकि पुण्यभाव रागरूप ही होता है । उसने दूसरी बात जो यह लिखी है कि " रागांश और रत्नत्रयांश में मिश्रित अखंडभाव को स्वीकार किया है, परन्तु अखण्ड एकत्व नहीं स्वीकार किया है" सो यह केवल उस पक्ष का कथन मात्र है, क्योंकि जब वह प्रास्रव-बन्ध तथा संवर- निर्जरा इन दोनों को मिश्रित भाव का कार्य मान लेता है तो मिश्रित भाव में शुभभाव भी आ जाता है और वह आनव-बन्ध का कारण ठहर जाता है, जो युक्तियुक्त नहीं है तथा आगम भी इसे स्वीकार नहीं करता । देखो समयसार कलश

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