Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 217
________________ . १७६ आगम में जीव और आत्मा इन दोनों का एक ही अर्थ है, इसलिए जीव की जो भी परिणाम लक्षण क्रिया होती है वह या तो धर्मरूप होती है या अधर्मरूप होती है। वह स्वयं धर्म और अधर्म है, यह कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं है। रही निमित्त की बात सो एक शरीर ही क्या, कार्यकाल में जिसके साथ जीव के कार्य की त्रिकालव्याप्ति या काल प्रत्यासत्ति बनती है, उसे उस समय निमित्त मानने में आगम से कोई बाधा नहीं आती । देखो स्वयंभूस्तोत्र श्लोक ५६ । ___ समीक्षक ने इसी वचन में "इसलिए उत्तरपक्ष का शरीर की क्रिया को आत्मा के धर्म-अधर्म में उपचरित कारण मानना मिथ्या ही है " यह कैसे लिख दिया, जबकि इसी बात के लिए वह तीन दौर तक उत्तरपक्ष से झगड़ता रहा। और अव सम्हला भी तो धर्म-अधर्म में शरीर को उपचरित हेतु मानने के लिए भी तैयार नहीं दिखाई देता। धन्य है समीक्षक की इस समीक्षा को। वह कब क्या मानेगा और क्या लिखेगा, कौन जाने ?, शंका ३ के पहले दौर की समीक्षा का समाधान शंका - जीवदया को धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ? : (१) समीक्षक ने जीवदया को उत्तरपक्ष के अनुसार पुण्यभावरूप तो स्वीकार कर लिया, किन्तु उसने जो यह लिखा है कि "जहां पूर्वपक्ष पुण्यभावरूप जीवदया को व्यवहार धर्मरूप जीवदया की उत्पत्ति में कारण मानता है, वहां उत्तरपक्ष इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।" सो समीक्षक ने हमारे किस कथन से यह अर्थ फलित किया, यह समझ से बाहर है । कारण कि जो जीवदया व्यवहारधर्मरूप है वह -अगले समय में होने वाले व्यवहारधर्म का कारण भी है ऐसा स्वीकार करने में हमने किसी प्रकार की बाधा तो उपस्थित को ही नहीं। अस्तु । . (२) जीवदया का अर्थ समीक्षक ने जो निश्चयधर्म किया है और उसकी पुष्टि में धवल पु. १३, पृ. ३६२ के जिस उद्धरण को उपस्थित किया है। उसमें करुणा को जीव का स्वभाव सिद्ध किया गया है। सो. इस सम्बन्ध में पूछना यह है कि जीवदया से यदि समीक्षक पर-दया को लेता है तो उसे निश्चयधर्म मानना नहीं बनता। धवल में जहां करुणा को जीवस्वभाव कहा गया है, वहां "करुणा" पद से स्वयं उसी जीव का स्वभाव धर्म ही लिया गया है, पर दया नहीं। किसी प्रकार का भ्रम न हो जाय इसलिये ही इतना स्पष्टीकरण किया है। . (३) अदयारूप अशुभप्रवृत्ति की निवृत्ति कहो या दयारूप शुभ परिणति कहो, वह व्यवहारधर्म तभी कही जायगी, जब वह मोक्षमार्ग के लक्ष्य से की गई हो। और वह निश्चयधर्म का निमित्त भी उसी अवस्था में मानी जायगी, अन्यथा नहीं। वह अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति को निवृत्तिरूप है, मात्र इसलिए वह न तो संवर और न निर्जरा का कारण ही हो सकती है और न ही संवर

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