Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 216
________________ १७८ वह जीव की क्रिया अर्थात् परिणति स्वयं व्यवहार धर्म और तत्वतः अधर्म रूप सिद्ध होती है। "उसकी प्रेरणा से" इतना विशेषण लगाने से तो कोई प्रयोजन ही सिद्ध नहीं होता। कथन १६ (स. पृ. २३४) का समाधान : इस कथन में केवली की चलने प्रादि रूप क्रिया और समुद्घात इन दो मुद्दों को आधार बनाकर समीक्षक लिखता है कि "केवली जिनकी क्रिया प्रकृतिबन्ध और प्रदेश वन्ध रूप कर्मवन्ध का कारण होकर भी नियम से संसारवृद्धि का कारण नहीं होती है। इस अपेक्षा से ही उसे मोक्ष का कारण पूर्वपक्ष ने माना है।" सो समीक्षक का यह विचार पढ़कर मैं अपनी हंसी नहीं रोक सका, कारण कि जो कम से कम एक समय के लिए ही सही संसार में रोक रखने में कारण है उसे मोक्ष का- कारण माना जाय यह कैसे हो सकता है ? यद्यपि हमने योगनिरोध की चर्चा करके समीक्षक का ध्यान उसकी असावधानी पूर्वक लिखी गई चर्चा की ओर आकर्षित करना चाहा था पर वह अपना पक्ष छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ, · इसका हमें खेद है। और फिर उसे विवक्षित बनाकर कथन अपने द्वितीय दौर में ही करना था। मैने प्रवचनसार की ४५वीं गाथा सावधानी से पढ़ी है। विवाद उसका नहीं है। विवाद निश्चंय और व्यवहार का है। समीक्षक व्यवहार को परमार्थरूप ठहराना चाहता है और हम व्यवहार को उपचरित मान लेने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। जो यथार्थ है, उसे यथार्थ मानो और जो व्यवहार है, उसे विकल्प का विषय मानो यही हमारा कहना है । और फिर ४५वीं गाथा में तो वह क्रिया न वन्ध का कारण है और न मोक्ष का ही कारण है। योग बन्ध का निमित्त हो सकता है, काय की क्रिया नहीं। संभवत. समीक्षक काय की क्रिया और योग में अन्तर नहीं समझकर अपना वक्तव्य लिख रहा है, जो योग्य नहीं प्रतीत होता। कथन १७ (स. पृ. २३५) का समाधान : त. च. पृ. ६२ में हमने जो कुछ लिखा है, उसे निमित्त बनाकर समीक्षक लिखता है कि "पूर्वपक्ष का प्रश्न शरीर के सहयोग से होने वाली जीव की क्रिया से सम्बद्ध है। उत्तरपक्ष इस बात को अन्त-अन्त तक नहीं समझ पाया है, समझकर भी उसकी उपेक्षा करता आया है।" सो यहां इतना ही उत्तर पर्याप्त है कि समीक्षक ने जीवित शरीर की क्रिया का जो इस समीक्षा में घुमावदार अर्थ किया है, उसे तीन दौर तक पूर्वपक्ष ने स्वयं कहां किया? कोई गति न देखकर स्वयं समीक्षक यह अर्थ कर रहा है, पर इस अर्थ के करने पर भी इससे तो यही सिद्ध होता है कि वह जीव स्वयं धर्म-अधर्मरूप परिणमता है और संसार अवस्था में शरीर आदि परद्रव्य उसमें बाह्य निमित्त होते हैं। समीक्षक ने भले ही "शरीर के सहयोग से (निमित्त से) होनेवाली जीव की क्रिया को आत्मा के धर्म-अधर्म में उपचरित हेतु माना है।" पर यहां वह इस बात को भूल जाता है कि

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