Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 212
________________ १७४ होता है। रही उपादान और प्रेरक निमित्तों को स्वीकार करने की बात, सो जितने भी अजीव पुद्गलादि सम्बन्धी कार्य और जीवों के भी अबुद्धिपूर्वक कार्य होते हैं, उन सबकी विवक्षा से हुए कार्यों में परिगणना हो जाती है । जैसे वायु.के प्रवाह को निमित्त कर ध्वजा का फड़कना यह विस्रसा से हुआ कार्य है । तथा प्राणियों के पुरुषार्थपूर्वक जितने भी कार्य होते हैं, उनकी परिगणना प्रायोगिक कार्यों में हो जाती है, किन्तु ये सब कार्य होते हैं अपने अव्यवहित पूर्वपर्याययुक्त द्रव्यरूप उपादान के अनुसार ही। आप्तमीमांसा अष्टसहस्री में प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव की कथन के प्रसंग से तथा 'कार्योंत्पादः क्षयो हेतोः' इस कारिका के प्रसंग से तथा स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा आदि ग्रन्यों में उपादान का उक्त लक्षण स्वीकार करके ही उपादान-उपादेयभाव रूप से और निमित्त-नैमित्तिक भावरूप से कार्यकारणभाव की व्याख्या की गई है, ऐसा यहां समझना चाहिये । समीक्षक ने त.च.पृ. ८२ पर जो सुवोध छात्र और मन्दबुद्धि छात्र का उदाहरण उपस्थित कर अपना मंतव्य सिद्ध करना चाहा है वह योग्य नहीं है । कंकड़ प्रादि रहित प्रत्येक चिकनी मिट्टी में घट बनने की स्वाभाविक योग्यता है, पर जव तक वह उपादान की भूमिका में आकर स्वतः अपने परिणमन स्वभाव के द्वारा घट भवन रूप परिणाम के सन्मुख नहीं होती है, तब तक वह घट नहीं बनती है । जब इस भूमिका में आ जाती है तो वह स्वयं घटरूप परिणम जाती है और उसमें योगउपयोग परिणत कुम्हार निमित्त हो जाता है । यह प्रायोगिक कार्य का उदाहरण है। फिर भी इसमें भट्टाकलंकदेवने उपादान-उपादेयभाव और निमित्त-नैमित्तिक भाव को कैसे सुन्दर हृदयग्राही शब्दों में घटित कर लिखा है यह किसी भी विवेकी के हृदय को छुने लायक कथन है। प्रकृत में भी समीक्षक को ऐसा ही समझना चाहिये । अरे भाई ! प्रत्येक वस्तु स्वयं अपना कार्य करने में स्वतन्त्र है। जब इस विवक्षा को जीव स्वीकार करता है, तभी वह अपने प्रयोजनीय कार्य के सन्मुख होता है और वाह्य अनुकूलता भी तभी बनती है । सुबोध छात्र को अध्यापक का मिलना उसकी अनुकूलता नहीं है। इसे गुरू मानकर इसके पास मुझे पढ़ना है यह भाव जब छात्र के होता है, तभी उसके पठन-कार्य में अध्यापक निमित्त होता है ! इतना समीक्षक भी समझता है, फिर भी वह अपने कल्पित मन्तव्य की पुष्टि किये जा र इसे हमारी भल बतलाकर अपने आप में बडप्पन अनभव करता है। और कार्य-कारणभाव की पदस्थल से अनभिज्ञ व्यक्तियों से भी बड़प्पन का भागी बनता है, किन्तु हम मानते हैं कि किसी बात की योग्यता होना अन्य बात है और उसका परिपाक काल का होना अन्य बात है। आत्मा सर्वज्ञ और समदर्शी स्वयं बनता है, कर्म या गुरु या तीर्थकर नहीं बनाते। अपना उपयोग स्वभाव आत्मा इनके विकल्पों को छोड़कर जब अपने स्वभावभूत आत्मा को चेतता है तब बनता है। पर जब तक उसके देवादि की पूजा स्तुति आदिका विकल्प रहता है, तब तक वह मुनि होकर भी 'छठे गुणस्थान से आगे नहीं बढ़ पाता है। वहीं अन्तमुहूर्त काल तक अटका रहता है या फिर गिर जाता है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253