Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 211
________________ १७३ (२) जितने काल के समय हैं, उतनी जब कार्य योग्यतायें हैं तो वे युगपत प्राप्त न होकर समर्थं उपादान के अनुसार काल के विभाग से ही प्राप्त होती हैं । यदि ऐसा न मानोगे तो जिन " निमित्तों की कार्यों के साथ श्रापके ही मतानुसार व्याप्ति हैं, वे कार्य नहीं बन सकेंगे तथा जो कार्य निमित्तों के विना पैदा होते हैं, वे कार्य भी नहीं बन सकेंगे । (३) समीक्षक के मतानुसार सव कार्ययोग्यताओं का युगपत प्रत्येक समय में प्राप्त होना मान लेने पर जितने काल तक प्रेरक निमित्त प्राप्त नहीं होंगे, उतने काल तक तो उस द्रव्य को अपरिणामी हो बना रहना पड़ेगा । (४.) यदि कहो कि उस अवस्था में वह स्वयं अपनी एक योग्यतानुसार परिणमेगा और उस समय जो द्रव्य उपचार से उसके अनुकूल होगा वही, उसमें निमित्त होगा । यदि ऐसा है तो हम कहते हैं कि जब प्रत्येक समय में चाहे प्रेरक कारण मिलो या न मिलो, द्रव्य को स्वयं अपना परिणमन कार्य करना है तो प्ररक कारण मानने से लाभ ही क्या हुआ, अर्थात् कुछ भी नहीं । तवं तो इष्टोपदेश के "धर्मास्तिकायवत्" वचनानुसार द्रव्य के सभी कार्य नियत समय में अपने कार्यानुपाती पद्धति से ही होते हैं यही मानना श्रेयस्कर प्रतीत होता है । और ऐसा माना आगमानुसारी तो है ही । A : सामान्य द्रव्य का या ही होता है, पर्याय तो (५) यदि समीक्षक कहे कि कहीं उपादान बलवान होता है और कहीं निमित्त बलवान होता है। जहां निमित्त वलवान होता है वहां द्रव्य को निमित्त के अनुसार ही परिणामना पड़ता है, हैं यहां पर उपादान पद से किसका ग्रहण करते हो अव्यवहित पूर्व पर्याय युक्त द्रव्य का ? यदि आप कहो कि उपादान तो द्रव्य उसमें रहती ही है । तो हम पूछते हैं कि ऐसा आप (समीक्षक) किस दृष्टि से कहते हो - प्रमाण से, . या द्रव्यार्थिकनय से या पर्यायार्थिक नय से ? श्राप समीक्षक कहोगे कि यह हम द्रव्याथिकनय से कहते हैं तो हम (समाधानकर्ता) पूछते हैं कि यह आप मन में सोचे गये कार्य की विवक्षा में कह रहे हो या अगले समय में नियत क्रम से होने वाले कार्य की विवक्षा में कह रहे हो । यदि प्राप (समीक्षक) कहे कि यह हम मन में सोचे गये कार्य की विवक्षा में कह रहे हैं तो वह तो ठीक नहीं, क्योंकि वह तो आप (समीक्षक) का विकल्प माना है । यदि असमर्थ उपादान के अनुसार अगले समय 'होने वाले नियत कार्य की विवक्षा हो तो हम कहते हैं कि यहां प्रत्येक कार्य की अपेक्षा कार्यकारणभाव का विचार चला है । अतः आपको प्रमारण की अपेक्षा यही मान लेना योग्य है कि सर्वत्र अव्यवहित पूर्वपर्याय युक्त द्रव्य ही उपादान होता है । और वही समर्थ उपादान है, कार्य भी प्रतिसमय उसी के अनुसार होता है । कहीं निमित्त बलवान होता है और कहीं उपादान, यह कथन मात्र है । 1 ऐसा मानने पर सर्वत्र चाहे वुद्धिपूर्वक कार्य को विवक्षा हो और चाहे अबुद्धिपूर्वक कार्य की विवक्षा हो, सर्वत्र एक नियम यही बनता है कि अव्यवहित पूर्वपर्याययुक्त द्रव्य ही उपादान होता

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