Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 199
________________ १६१ आगे उसने धर्मअधर्म का जो स्पष्टीकरण किया है, उस विषय में आगम के अनुसार यह स्पष्टीकरण योग्य प्रतीत होता है कि जीव के निश्चय रत्नत्रय के साथ जिसे व्यवहार रत्नत्रय कहते . हैं, वह देवादि की पूजा, विनय और व्रतादिरूप ही माना जाता है तथा जिसे आगम में अधर्म कहा गया है, वह मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान व मिथ्याचारित्ररूप ही स्वीकार किया गया है, जैसा कि रत्नकरण्डश्रावकाचार के श्लोक संख्या ३ से स्पष्ट है । कथन ६ (स. पृ. २१६) का समाधान : इस कथन में उसके उपादान और निमित्त का जो अर्थ लिखा है, वह व्याकरण में की गई व्युत्पत्ति के अनुसार ही लिखा है । इन दोनों का वास्तविक लक्षण इस प्रकार है- अव्यवहितपूर्वपर्याययुक्त द्रव्य उपादान का लक्षण है तथा अन्य द्रव्य के कार्यकाल में कालप्रत्यासत्तिवश जिसकी त्रैकालिक व्याप्ति का योग बनता है, यह निमित्त का लक्षण है। हमारे द्वारा किये गये ये दोनों लक्षण प्रागम सम्मत होने से विद्वानों द्वारा मान्य हैं, किन्तु उसके द्वारा जो लक्षण इस कथन में लिखे गये हैं, वे केवल शब्दों की व्युत्पत्तिमात्र हैं, इसलिये आगम में उनको मान्य नहीं किया है। समयसार गाथा ८० में "जीवपरिणामहेदु" और "पोग्गलकम्मनिमित्त" पद आये हैं, इन दोनों में भी बाह्यवस्तु में ही निमित्तपना स्वीकार किया गया है । बाह्यवस्तु उपादान का मित्र के समान स्नेहन करता है, यह अर्थ उन दोनों पदों से फलित नहीं होता। यह केवल धातुपरक अर्थ है, जिसे केवल नैयायिक दर्शन के अनुसार वह समीक्षक स्वीकार कर रहा और उसे जनदर्शन पर लादना चाहता है। रही समयसार ८२ संख्याक गाथा, सो उसमें निश्चय कर्ता-कर्म की विवक्षा की गई है । जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उपचार से जो निमित्त में कर्त्तापन स्वीकार किया गया है, वह वास्तविक नहीं है । यही स्थिति पुरुपार्थसिद्ध युपाय के १२-१३ संख्याक श्लोकों की है । स्वयंभूस्तोत्र संख्या ६६ वें श्लोक में जो अंगभूत' पद आया है सो उस पद का हमने जो अथ किया है, उसे उसने मान्य कर लिया है, यह प्रसन्नता की बात है; किन्तु उसी श्लोक में जो "आभ्यंतरम्" पद पाया है, वह अपने में स्वतन्त्र है। इन दोनों पदों में विशेषए. विशेष्य भाव का आशय एक दृष्टि से मान्य भी किया जाय तो कोई हानि नहीं है । इसका समर्थन समयसार गाथा ८२ और ८५ से भलेप्रकार होता है क्योंकि निमित्त की स्वीकृति निश्चय की सिद्धि के अभिप्राय से आगम में स्वीकार की गई है, वस्तु में परमार्थ से अन्य द्रव्य के कार्य में निमित्तता नहीं हुआ करती। परमार्य से देखा जाय तो वस्तु अपने प्रत्येक कार्य में स्वयं निमित्त है और स्वय उपादान है। अभेद विवक्षा में वही कर्ता है और वही कर्म भी है। कयन ७ (स. पृ २१७) का समाधान : हमने त च. पृ. ८७ पर जो वक्तव्य लिखा है, उसके उत्तर में समीक्षक (पूर्वपक्ष) ने जो यह लिखा है कि "उत्तरपक्ष के कथन से ऐसा लगता है कि वह अपने को जो तत्वज्ञ समझता है और उसे अतत्वज्ञ समझता है। केवल यहीं पर नहीं, अपितु तत्वचर्चा में सर्वत्र उत्तरपक्ष ने ऐसा ही

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