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लेता है । फिर भी मोहनीय और ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय होने से इन गुणस्थानों की प्राप्ति हुई, यह असद्भूत व्यवहार नय से कहा जाता है।
द्वितीय भाग की समीक्षा के आधार पर पृ. २६ (स.) में समीक्षक ने उदासीन निमित्त के समान व्यवहार से कहे जाने वाले प्रेरक निमित्तों को व्यवहारहेतु मान लिया है, यह प्रसन्नता की बात है। फिर भी उसका जो यह कहना है कि "प्रश्न प्रेरक और उदासीन निमित्तों को व्यवहारहेतु मानने न मानने के विषय में नहीं है, अपितु प्रश्न यह है कि व्यवहारहेतु होते हुए भी प्रेरक निमित्त को कार्योत्पत्ति में उपादान का सहायक होने रूप में कार्यकारी माना जाय या उसे वहां सर्वथा अकिंचित्कर स्वीकार किया जाय। पूर्वपक्ष तो अपने उक्त कथन में यह भी स्पष्ट स्वीकार कर रहा है कि प्रेरक निमित्त के समान पंचास्तिकाय की गाथा ८७ ओर ६४ वे की टीकात्रों के आधार पर उदासीन निमित्त भी कार्योत्पत्ति में उपादान का सहायक होने से कार्यकारी है, अकिंचित्कर नहीं।" यह समीक्षक का वक्तव्य है। इस वक्तव्य से यह स्पष्ट है कि जैसे समीक्षक ने लोक में माने गये दोनों प्रकार के निमित्तो को व्यवहारहेतु रूप में स्वीकार कर लिया है, उसी प्रकार उसे उपादान के कार्यों में व्यवहार से (उपचार से) सहायक भी मान लेना चाहिये था, तो यह विवाद समाप्त हो जाता और समीक्षक इस आधार पर जिनागम के अनुसार उपादान के लक्षण को भी स्वीकार कर लेता और अन्य वातों को भी स्वीकार कर लेता; परंतु उसकी अपनी हठ ही आगम के अनुसार मान्यता बनाने में वाधक हो रही है।
पंचास्तिकाय गाथा ८७ और १४वे में व्यवहार हेतु की मात्र सिद्धि की गयी है, पर इससे व्यवहार हेतु पर के कार्य की क्रिया करती है यह सिद्ध नहीं होता। इस अर्थ में अर्थात् पर की क्रिया करने में व्यवहार अकिंचित्कर ही है। और इसीलिये पंचास्तिकाय की गाथा ८७ में प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र रूप से अर्थात् पर की सहायता की अपेक्षा किये बिना अपना कार्य करते हैं, इसकी पुष्टि में यह वचन उपलब्ध होता है -
"तत्र जीव पुद्गालो स्वरसत एव गतितत्पूर्वस्थितिपरिणामापन्नो"।
वहाँ जीव और पुद्गल स्वरस से (स्वभाव से ही) गति परिणाम को तथा गति पूर्वक स्थिति परिणाम को प्राप्त होते हैं।
तृतीय भाग की समीक्षा के आधार पर (स. पृ. ३०-३१) अन्य जीव और द्रव्य अन्य की क्रिया नहीं कर सकता:
पृष्ट ३० (स.) में भी समीक्षक ने निमित्तों की कार्यकारिता का समर्थन किया है, किन्तु पूर्व में किये गये कथन के समान यहां इतना ही कहना है कि जब वह उपादान के कार्यों में निमित्तों को व्यवहार से ही स्वीकार करता है - ऐसी हालत में उसे उपादान के कार्यों में उनकी (निमित्तों की ) कार्यकारिता भी व्यवहार से अर्थात उपचार से ही स्वीकार कर लेनी चाहिये। यहां जो सहकारी कारण का लक्षण - "यंदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहाकारिकारणमितरत् कार्यमिति" - इस लक्षण से जिन्हें सहकारी कारण कहा गया है, उनमें निमित्तता ही सिद्ध होती है । उससे यह सिद्ध नहीं होता कि जो कार्य का सहकारी कारण कहलाता है, वह उपादान कर्ता के समान उस कार्य की क्रिया करने में समर्थ होता है । मात्र इससे तो इतना ही सिद्ध होता है कि उपादान के