Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 186
________________ १४८ समीक्षक स्वीकार नहीं करता, इसका हमें आश्चर्य है। समीक्षक 'य:परिणमति' का सर्वत्र प्रायः यही अर्थ करता आ रहा है इसलिये यह विचारणीय हो जाता है। दूसरे समीक्षक ने यहीं पर अपने उक्त कथन को जो द्रव्याथिक शुद्ध निश्चयनय का विषय लिखा है तो यह कथन सद्भूत व्यवहारनय का विषय है, क्योंकि उक्त कथन में आधार-प्राधेय भाव की विवक्षा होने से वह द्रव्याथिक शुद्ध निश्चयनय का विपय कैसे हो गया - यह वही जाने । (१२) शंका :- समीक्षक का कहना है कि वाह्याभ्यंतर सामग्री के रहने पर यदि प्रतिवन्धक कारण का सद्भाव हो तो कार्य नहीं होता? समाधान :-प्राचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि बाह्य-आभ्यन्तर सामग्री की समग्रता में कार्य होता है, यह वस्तुगत स्वभाव है । ऐसी अवस्था में यह समीक्षक वतलावे कि किसी भी कार्य की उत्पत्ति के प्रतिकूल यदि प्रतिबन्धक सामग्री का सद्भाव है तो वहां किसी भी कार्य के होने में वाह्याभ्यन्तर सामग्री की समग्रता कैसे मानी जाय ? अर्थात् नहीं मानी जा सकती है। दूसरी बात यह है कि जिसे समीक्षक प्रतिवन्धक कारण कहता है तो यहां देखना यह है कि प्रतिवन्धक कारण क्या द्रव्य को सर्वथा अपरिणामी बना देता है या उसके अभाव में जिस कार्य की उत्पत्ति होनी चाहिये थी वह न होकर दूसरे कार्य की उत्पत्ति में वह निमित्त हो जाता है । यदि समीक्षक कहे कि उस प्रतिबन्धक कारण के अभाव में जिस कार्य की उत्पत्ति होनी चाहिये थी उसकी उत्पत्ति न होकर जिस कार्य का वह प्रतिबन्धक नहीं है उस कार्य की उत्पत्ति होने लगती है तो इसका यह अर्थ हुआ कि समीक्षक उस समय किसी अन्य कार्य की कल्पना कर उसे उस कार्य का प्रतिबन्धक कह रहा है । वस्तुतः उस समय उपादान के परिणमनरूप या परिस्पंदरूप कार्य का वह प्रतिबन्धक न होकर उसके होने में अन्य निमित्तों के समान वह भी एक निमित्तमात्र है । (१३) शंका :-कथन ३१(ग) के अनुसार समीक्षक उपादान कारणभूत वस्तु को द्रव्यार्थिक शुद्ध निश्चयनय का विषय मानता है सो उसका ऐसा मानना समीचीन है क्या ? समाधान :-पागम में सर्वत्र उपादान-उपादेय भाव का निर्देश करते हुए अव्यवहित पूर्व पर्याय युक्त द्रव्य को उपादान और अव्यवहित उत्तर पर्याय युक्त द्रव्य को उपादेय कहा गया है । इसलिये समीक्षक ने उपादान को जो द्रव्याथिक शुद्ध निश्चयनय का विषय लिखा है सो उसकी वह मान्यता एकान्तवाद से दूषित हो जाने के कारण प्रागम में उसे मान्य नहीं किया जा सकता दूसरे द्रव्यार्थिक शुद्ध निश्चयनय का विषय तो अभेद विवक्षा में सम्यग्दर्शन या रत्नत्रय परिणत स्वभावभूत आत्मा ही होता है, न कि उपादान कारणभूत वस्तु; किन्तु वस्तु तो विभाव पर्याय से परिणत होकर भी उपादान कारण होती है। इस दृष्टि से विचार करने पर वह अव्यवहित पूर्व पर्याय युक्त द्रव्य ही उपादान ठहरता है, जिसे आगम में प्रमाण का विषय स्वीकार किया गया है। (देखो अष्टसहस्री कारिका १० की अष्टसहस्री टीका के टिप्पण ।) इसप्रकार हम देखते है कि समीक्षक द्वारा लिखी गई खानिया तत्वचर्चा की समीक्षा अनेक पागम बाह्य विवेचन का कलेवर है। इत्यलं विस्तरेण ।

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