Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 191
________________ १५३ (५) यहां स्वयंभू स्तोत्र का हमने उद्धरण देकर जो अर्थ लिखा है उसे समीक्षक ने कुछ बदल कर मान लिया है । वह मानता है कि कार्य में जो निमित्त होता है उसके सहारे से अन्य द्रव्य होता है, इस पर हम पूछते हैं कि "सहारा" क्या वस्तु है ? यदि उसे निमित्त का धर्म माना जाय तो वह निमित्त में ही रहा । उससे जिस वस्तु में कार्य हुआ उसको क्या लाभ मिला, अर्थात् कुछ भी नहीं। तो फिर निमित्त के सहारे से कार्य होता है - ऐसा क्यों कहते हो ? यदि कहो कि जिसमें कार्य होता है वह उसका धर्म है तो हम पूछते हैं कि उसे किसने पैदा किया ? यदि कहो कि निमित्त ने पैदा किया तो फिर वह निमित्त का धर्म ठहरा । ऐसी अवस्था में जिसमें कार्य हुआ उसमें संकमरण कैसे हो सकता है, अर्थात् नहीं हो सकता है । यदि कहो कि निमित्त के सहारे से कार्य हुआ यह कथन ! मात्र है, तवं फिर यही क्यों नहीं मान लेते कि काल प्रत्यासत्ति वश विवक्षित कार्य के समय श्रन्य वस्तु में निमित्त व्यवहार होता है । परमार्थ से अन्य वस्तु अन्य के कार्य का निमित्त नहीं होती । इस प्रकार विचार करने पर यही निर्णय होता है कि स्वयंभू स्तोत्र के उक्त उल्लेख का हमने जो अर्थ किया है वही उपयुक्त है । उससे हमारे इस अभिप्राय की 'पुष्टि होती है कि जीवित विशेषरण जीव के लिए ही आता है, शरीर के लिए नहीं । इसलिए प्रकृत में उक्त श्लोक से जो अर्थ .. स. पृ, २०२ में "अंग” शब्द को लेकर समीक्षक ने जो टिप्पणी की है उसके अनुसार वाह्य निमित्त कार्य - द्रव्य का कोई उपकार तो नहीं करता, मात्र ऐसा प्रसद्भूत व्यवहारनय से कहा अवश्य जाता है। और फिर उसके "अंग" शब्द का अर्थ स. पू. २०० में " गोरण" किया ही है । फलित होता है, वही अर्थ हमने किया भी है । (६) त. च. पू. ७८ में हमारे उल्लेख के आधार पर समीक्षक ने (क) के अन्तर्गत जो श्रात्म पुरुषार्थं का उल्लेख किया है, वह ठीक है । हमने स्वयं भूस्तोत्र पृ. ६० का जो अर्थ किया है वह भी ठीक है । इसी अनुच्छेद में उसने दूसरी बात लिखी है सो उस सम्बन्ध में प्रकृत में यह समझना चाहिये कि मोक्षमार्गी के जो स्वभाव पर्याय उत्पन्न होती है वह उसके आत्मलक्षी होने से ही होती है। यहां निमित्त गौण है । (ख) कार्योत्पत्ति के अवसर पर निमित्त मिलते ही नहीं हैं या प्रतिकूल निमित्त मिलते है यही लिखना उस पक्ष का प्रमाद है । प्राचार्यों ने जब कार्योत्पत्ति के समय बाह्य और आभ्यंतर उपाधि की समग्रता में कालप्रत्यासत्ति स्वीकार की है तव कार्योत्पत्ति के अवसर पर निमित्त मिलते. ही नहीं हैं या प्रतिकूल निमित्त मिलते हैं, यह प्रश्न ही खड़ा नहीं होता । समीक्षक को आगम से ऐसा उदाहरण देना चाहिये कि कार्योत्पत्ति के अवसर पर निमित्त नहीं मिलते हैं । व्यर्थ में ऐसा लिखकर आगम को क्यों बदलना चाहता है, उपासना नहीं कह सकते । मिलते या प्रतिकूल निमित्त इसे हम उसकी जिनागम की (ग) आगे उसने जो यह लिखा है कि "परन्तु कार्योत्पत्ति जीव है, इसलिए जीव के लिए अपने उपादान की सम्हाल का क्या प्रयोजन इसका यही उत्तर है कि कार्य एक में होता है, जीव और अजीव दो और अजीव दोनों में होती रह जाता है" आदि। सो में मिलकर नहीं । इसलिए

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