Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 194
________________ यदि वह कहे कि जैसे दण्ड के निमित्त से मनुष्य दण्डी कहलाता है वैसे ही यहां जीव के निमित्त से शरीर को जीवित कहा गया है। सो उसका यह कहना भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि जैसे दण्ड के निमित्त से मनुष्य दण्डी या दण्डवाला कहा जाता है वैसे ही जीव के निमित्त से शरीर को जीववाला शरीर कहा जायगा, न कि जीवित शरीर । अन्यथा जीव और शरीर में प्रभेद का प्रसंग प्राप्त होता है। (ख) हमने शंकाकार पक्ष की प्रतिशंका २ और ३ के विवेचनों पर ध्यान दिया था और वहीं उनका समाधान भी कर आये थे। यहां उस आधार पर जो समीक्षक यह लिखता है कि "जिसे उत्तर पक्ष जीव के सहयोग से होने वाली शरीर की क्रियारूप जीवित शरीर की क्रिया को पुदगल द्रव्य की पर्याय मानकर उसे अजीव तत्व में अन्तर्भूत करके और उससे प्रात्मा में धर्म अधर्म मानने के विषय में कुछ भी आपत्ति नहीं है । मैंने अपनी प्रकृत विपय सम्बन्धी समीक्षा में भी इस बात को स्पष्ट कर दिया हैं।" सो समीक्षक यदि इस वक्तव्य को उत्तर पक्ष के प्रथम दौर के वाद लिखी गई प्रति शंका २ में ही स्वीकार कर लेता तो आगे यह विषय विवाद का विषय ही नहीं बनता, अस्तु जब समीक्षक ने उत्तर पक्ष के कथन को स्वीकार किया तभी पूर्व में सूर्य का कंगना कहा जायगा। किन्तु यहीं पर "परन्तु" लिखकर जो अपनी अन्य मान्यता का हवाला देकर उसने शरीर के निमित्त से होनेवाली जीव की क्रिया को यद्यपि वह जीवित शरीर की क्रिया नहीं है "फिर भी उसका ऐसा कहना तो उत्तरोत्तर असत्य कहने की परम्परा का ही सूचक है। इससे इप्टार्थ फलित करना संभव प्रतीत नहीं होता । इसकी अपेक्षा समीक्षा लिखते समय उसके सामने इतना लिखा होता कि "शरीर की क्रिया से आत्मा में धर्म अधर्म होता है या नहीं" तो उसे इतना द्राविडी प्राणायाम न करना पड़ता। (ग) वाह्य पदार्थ अगणित होते हैं और असद्भूत व्यवहारनय से जब वे विवक्षित द्रव्य के कार्यकाल में निमित्त कहे जाते हैं - ऐसी अवस्था में उसे मूल शंका की जिन मनमानी व्याख्या उपस्थित करके अपने मन की खीझ मिटानी पड़ रही है वह स्थिति उत्पन्न न होती यदि वह शरीर को "जीवित" विशेषण लगाने का समर्थन न करता। सीधी सी बात तो यह है कि वह इस प्रमाद को स्वीकार करले कि हम शरीर को "जीवित" विशेषण लगाने का मर्थन कर रहे हैं तो ठीक नहीं कर रहे हैं । अतः उसके द्वारा उक्त मूल शंका की उत्तरोत्तर नाना व्यास्यायें उपस्थित करने से कोई लाभ नहीं। (घ) प्रश्न विषयक प्रथम और द्वितीय दौर में उसकी शंका प्रतिशंकायें हैं, समीक्षा नहीं। इस दौर को वह भले ही समीक्षा कहे और लिखे, पर है वह प्रतिशंका ही। शेष सब व्याख्यायें इस समाधान में हम पहले ही स्पष्ट कर पाये हैं कि शरीर की क्रिया आत्मा के भावों में निमित्त है, इसलिये इन दोनों में निमित्त-नैमित्तिक रूप से कार्यकारण भाव घटित हो जाता है । वह उपचरित कथन ही- इतना यहाँ विशेष जानना चाहिये ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253