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१७.
(E) इसके अन्तर्गत आये हुए उसके कथन का समाधान (ग) के अन्तर्गत किये गये समाधान से हो जाता है ! . .
(च) शरीर या कोई भी परद्रव्य आत्मा के शुभ अशुभ भावों के होने में निमित्त है । शरीर जीवित नहीं होता, इसलिए अपने कथन को पुष्टि के लिये द्राविडी प्राणायाम करना व्यर्थ है ।
(छ) हम क्या मानते हैं, पागम के आधार पर यह हम सब स्पष्ट करते आये हैं । मूल वात यह है कि शरीर को "जीवित" कहना परमार्थ से बनता नहीं। इस सम्बन्ध में उसको अपना मत बदल लेना चाहिये । वाकी सब कथन यथासम्भव बन जायगा। जहां थोडा बहुत सुधार अपेक्षित है उसे आगम के अनुसार जान लेना चाहिये, अपनी व्याख्या के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिये । यह जंगल में अकेले फाग खेलना है। हमने उपादान-उपादेय भाव से एक शब्द भी नहीं लिखा । व्यर्थ ही वह पक्ष हम पर आरोप करके अपना बचाव करना चाहता है। मूल शंका उपादान-उपादेय भाव से विवेचन करने की है भी नहीं। ..
. (ज) हमने तत्वार्थ सूत्र के अ०६ के सूत्र १ व २ पर ध्यान दिया है । यह प्रश्न ही नहीं कि किससे क्या होता है ? अागम में स्पष्ट है, सब जानते हैं । जो बात चिन्त्य है, समीक्षक को उस पर ध्यान देना चाहिये । पागम ही हमारी मान्यता है। शरीर को जीवित्त विशेपण लगाना हमारी मान्यता नहीं है । यह उसकी मान्यता है। समयसार गाथा १६७ का आशय रागादि के योग से जीव का शुभ अशुभ भाव ही होता है। जीव की क्रियावती शक्ति का परिणमन तो प्रात्मप्रदेश परिस्पन्द रूप ही होता है।
आगे उस पक्ष ने रागादिरूप परिणमन तथा मन, वचन और काय की क्रिया में जो फर्क है उसे स्वयं ही स्वीकार कर लिया है।
मोहनीय कर्म के उपशमादि के साथ जीव के सम्यग्दर्शनादिक की काल प्रत्यासत्ति है, इस लिये उपचार नय से यह कह सकते हैं कि मोहनीय कर्म के उपशमादि से जीव के सम्यग्दर्शनादि होते हैं। निश्चय से तो ये स्वाभावभूत आत्मा की ओर लक्ष्य देने से स्वयं ही होते हैं, पर आश्रय से नहीं क्योंकि वे जीव के स्वभाव भाव हैं । समीक्षक को दोनों नयों के कथनों में भेद करके लिखना चाहिए । आगे (आ) से लेकर (मः) के अन्तर्गत जो कुछ भी लिखा है वहां सर्वत्र पूर्वोक्त विधि से समझ लेना । चाहिये, क्योंकि निश्चयनय स्वाश्रित कथन को स्वीकार करता है और असद्भूत व्यवहारनय का विषय पराश्रित कथन है । इसके अतिरिक्त नय विवक्षा को छोड़कर एकान्त से जितना कुछ भी लिखा जाता है वह आगम बाह्म होने से ग्राह्य नहीं माना गया है।
मिथ्या दर्शनादिरूप जितने भी परिणमन हैं वे सब जीव की भावरूप अवस्थायें हैं। उनके रहते हुए अतत्व श्रद्धा आदि कार्य होते हैं । "मस्तिष्क के सहारे" यह आज की भाषा है, पागम के अनुसार चिन्तन का काम मन का है, मष्तिष्क का नहीं । आगे (क) के अन्तर्गत समीक्षक ने जो "व्यवहार मिथ्याज्ञान" लिखकर उसकी व्याख्या की है सो मिथ्याज्ञान तो मिथ्याज्ञान ही है और वह स्वतंत्र