Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 120
________________ ८२ कथन ३१ का समाधान: - समीक्षक का कहना है कि "हमारा पक्ष यह घोपणा करता है कि अनुभव, तर्क और पागम सभी प्रमाण से यह सिद्ध होता है कि यद्यपि कार्य की निप्पत्ति उपादान में ही हुआ करती है अर्थात् उपादान ही कार्यरूप परिणत होता है, फिर भी उपादान की उक्त कार्यरूप परिणति में निमित्त की अपेक्षा वरावर वनी रहती है, अर्थात् उपादान की जो परिणति आगम में स्व-पर प्रत्यय स्वीकार की गई है, वह परिणति उपादान की अपनी होकर भी निमित्त की सहायता से ही होती है। अपने आप (निमित्त की सहायता की अपेक्षा किये बिना) नहीं होती। चूंकि आत्मा के रागादिरूप परिणमन और चतुर्गति भ्रमण को. आगम में उसका (आत्मा का) स्व-पर प्रत्यय परिणमन प्रतिपादित किया गया है, अतः वह परिणमन प्रात्मा का अपना परिणमन होकर भी द्रव्यकर्मों की सहायता से ही हुआ करता है । (स० पृ० २५) यद्यपि समीक्षक के इस वक्तव्य का सयुक्तिक उत्तर प्रथम शंका के तीसरे दौर में ही. दे.आये हैं । यह हम वहाँ ही, वतला पाये हैं कि जैसे द्रव्यसत् और गुणसत् वस्तु के स्वरूप हैं, वैसे ही पर्यायसत् भी वस्तु का स्वरूप ही है। और पर्याय दूसरे की सहायता से उत्पन्न हो, फिर भी वह वस्तुमय हो, यह नहीं हो सकता। यद्यपि पर्याय के होने में किससे हुई - यह व्यवहार अवश्य किया जाता है, पर इसे (बाह्य निमित्त को) पागम में असद्भूत (उपचरित) ही. माना गया है। वह होती तो अपने काल में स्वयं ही है, क्योंकि उसके होने में (उत्पत्ति में) अन्य की अपेक्षा नहीं होती । स्वयं ही द्रव्य अपने परिणाम स्वभाव के कारण पर्याय रूप परिणम जाता है, इसलिये परमार्थ से वह परनिरपेक्ष ही होती है । जैसा कि समयसार के कलश से ज्ञात होता है यदिह भवति रागद्वषदोषप्रसूतिः । कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र ।. स्वयमयमपराधी तत्र सर्पत्यबोधो। भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः ।।२२०॥ इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि कोई भी द्रव्य किसी अन्य द्रव्य के कार्य में परमार्थ से. सहायक नहीं होता। मात्र असद्भूत व्यवहारनय से उसमें सहायकपने का व्यवहार किया जाता है । सो भी ऐसा मानने का मूल कारण कालप्रत्यासत्ति को ही जानना चाहिये। दूसरी बात यह है कि अपेक्षा विकल्प में हुआ करती है, वस्तु में नहीं। ___ समीक्षक ने अपने कथन में जिस भाषा का प्रयोग किया है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि . वह द्रव्य को परिणाम स्वभाव के बल पर स्वरूप से कर्ता मानना ही नहीं चाहता । अन्यथा वह "यद्यपि कार्य की निष्पत्ति उपादान में ही हुआ करती है" इसकी जंगह "यद्यपि उपादान' कार्यरूप परिणमता है.", इस भाषा का प्रयोग अवश्य करता, परन्तु वह पद-पद पर इस भापा का प्रयोग नहीं करना चाहता... इससे मालूम पड़ता है कि उसके हृदय में कोई गांठ पड़ी हुई है, जिस कारण वह बुद्धिपूर्वक उक्त भाषा का प्रयोग नहीं करता। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि वह असद्भूत व्यवहार को परमार्थपना देना चाहता है, तभी तो वह बार-बार असद्भूत व्यवहारनय के कथन का परमार्थ

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