Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 180
________________ १४२ आप स्वयं सम्पन्न कर लेना। तो क्या यहां पर उसका यह अर्थ होता है कि श्राप इस काम को अपने रूप निपटा लेना, या यह अर्थ होता है कि आप इस काम को आप ही निपटा लेना । जैसे यह बात है उसी तरह से आगम में भी निर्णय लेना चाहिये । तदनुसार 'स्वयं परिणमता' का कर्त्ता कारक में अर्थ होगा - आप ही परिणमता है । कथन नं. ६७ का समाधान:- इस कथन में समीक्षक के वचनों में श्राडंवर और पुनरुक्ति के सिवाय और कोई तथ्य दिखाई नहीं देता, जिनके सम्वन्ध में विस्तार से हम यहां उत्तर लिखें आगम के प्रति छल कौन कर रहा है, वह कि हम इसका वह स्वयं ही निर्णय करे । अन्त में उसने जो यह लिखा है कि "यह विवाद तत्व चर्चा से समाप्त नहीं हो सका, अतएव तत्व चर्चा की इस "समीक्षा" को लिखने की धीर ध्यान देना पड़ा है" श्रादि, तो समीक्षा करने वाले पंडितजी जबकि स्वयं ही पूर्व पक्ष के एक सदस्य हैं; ऐसी अवस्था में यह तो उन्हें ही सोचना चाहिए था कि "समीक्षा लिखने के अधिकारी हम नहीं हो सकते, क्योंकि हम तटस्थ व्यक्ति नहीं हैं, इसलिये, हमें समीक्षा लिखनेका अधिकार नहीं हो सकता ।" हम यहां इतना अवश्य कहते हैं कि यदि उक्त पंडितजी स्वाश्रित निश्चयनय के कथन के अनुसार लिख सकें तो मैं उन्हें विश्वास दिलाता हूं कि मैं निश्चयनय के कथन को किसी प्रकार की क्षति पहुंचाये विना सद्भूत और असद्भूत व्यवहारनय के अनुसार वस्तु स्वरूप और कार्य कारण भाव का समर्थन कैसे लिखा जा सकता है - इसके लिये उनको इस जीवन के अन्तिम समय तक कभी भी उपलब्ध रहूंगा । कथन नं. ८ का समाधान: --- इस कथन में भी समीक्षक ने "स्वयं" पद के आधार पर ऊहापोह करते हुए लिखा है कि- “उपादान में कार्य की उत्पत्ति निमित्त कारणभूत वाह्रयवस्तु की सहायता से ही होती है ।" सो उसका ऐसा लिखना भ्रमोत्पादक ही कहा जायगा । कारण कि एक तो उपादान कार्य की उत्पत्ति होती ही नहीं, उपादान तो कारण है और वह कार्य के अव्यवहित पूर्व पर्याय युक्त द्रव्यरूप ही होता है, अतः कार्य उपादान के ध्वंसरूप ही होता है। इससे निश्चित है कि कार्य उपादान में न होकर जो वस्तु कार्य का उपादान वनती है उसके अनन्तर समय में ही होता है । दूसरे - निश्चयनय से प्रत्येक वस्तु स्वाधित ही होती है । उसका लक्षण भी यही है - "स्वाश्रितो निश्चयनयः" अतः इस दृष्टि से जब विचार करते हैं तव प्रत्येक परिणाम ( कार्य ) पर निरपेक्ष स्वयं ही (अपने आप ही ) होता है ऐसा श्रागम से स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं आती । प्रवचनसार गाथा १६६ की तत्वदीपिका टीका में प्राये हुए "स्वमेव" पद का भी यही आशय है । अन्यत्र जहां कर्ता कारक के अर्थ में "स्वयमेव" पद आया है वहां भी इस पद का यही अर्थ करना चाहिये । प्रवचनसार गाथा १६ की इसी तत्वदीपिका टीका में "स्वयंभू" पद का षट्कारक के रूप में जो स्पष्टीकरण मिलता है सो उसका भी यही आशय है और इसीलिए उसकी पुष्टि में प्रवचनसारं गाथा १६ की तत्वदीपिका टीका मैं यह कहा गया है कि " निश्चयनय से पर के साथ आत्मा का कारकपने का सम्बन्ध नहीं है, जिससे कि शुद्ध आत्मस्वभाव के लाभ के लिये सामग्री की मार्गरणा की व्यग्रता से यह जीव परतंत्र होवे " उल्लेख इस प्रकार है -

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