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पर वह उसमें परमार्थ से सहायक नहीं हो सकता, उसका अनुरंजन नहीं कर सकता और उसका उपकार नहीं कर सकता, इतना स्पष्ट है। और यह पागम से ही स्पष्ट है कि जो जिसका स्वचतुष्टय नहीं होता, वह उससे सर्वथा भिन्न ही रहकर स्वयं अपना कार्य करता है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य एक काल में एक ही क्रिया कर सकता है । आशा है समीक्षक इस तथ्य को स्वीकार कर एकान्त से स्वीकार की गई अपनी मान्यता को कल्पनाजन्य ही मान लेगा। इसी में जनशासन के हार्द की रक्षा है, अन्यथा जनदर्शन में भी ईश्वरवाद का प्रवेश अनिवार्य रूप से स्वीकार करना पड़ेगा। स. पृ. १२५)
कथन नं. ४४ का समाधान :-खा. त. च पृ. ६१ के आधार पर हमने जो निमित्त के दो भेद लिखे थे उनके विपय में समीक्षक टिप्पणी करते हुए लिखता है कि "प्रेरक और उदासीन निमित्तों के जो पृथक-पृथक् लक्षण उत्तरपक्ष ने दिये हैं, उनसे दोनों निमित्तों में प्रयोग भेद सिद्ध होनेपर भी उनका कार्यभेद सिद्ध नहीं होता; जब कि इनमें प्रयोगभेद और कार्यभेद दोनों हैं। पंचास्तिकाय के कथन से भी ऐसा ही निर्णीत होता है।" सो इस सम्बन्ध में हमारा कहना इतना ही है कि समर्थ उपादान का लक्षण प्रागम में स्पष्ट रूप से दिया गया है। इसके अति समर्थ उपादान का लक्षण आगम में पाया नहीं जाता। एकान्त का आश्रय कर द्रव्याथिकनय से समीक्षक ने जो उपादान का लक्षण लिखा है, वह समर्थ परमार्थभूत उपादान का लक्षण नहीं है और उस आधार से पागम में उपादान के कार्य का विचार भी नहीं किया गया है। हम इसी शंकासमाधान में प्राप्तमीमांसा की कारिका १० और ५८ तथा उनकी टीका अण्टसहस्री के आधार से उपादान-उपादेय भाव का सांगोपांग विचार कर आये हैं। त श्लो. वा. पृ. १५१ के आगे लिखे जाने वाले वचन से भी यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक समय में अव्यवहित पूर्वपर्याययुक्त द्रव्य उपादान होता है और अव्यवहित उत्तरपर्याय युक्त द्रव्य कर्म होता है । त श्लो. वा. का वचन इसप्रकार है -
"क्रमभुवोः पर्याययोरेकद्रव्यप्रत्यासत्तेरुपादानोपादेयत्वस्य वचनात् ।"
अर्थ :-क्रम से होनेवाले दो पर्यायों में एक द्रव्य प्रत्यासत्ति होने से उपादान-उपादेयपने का वचन पाया जाता है।
इसप्रकार उपादान और उपादेय के वास्तविक लक्षणों पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि समीक्षक ने अपने मतानुसार प्रेरक निमित्त का जो लक्षण दिया है, वह सर्वथा आगमविरुद्ध होने से मान्य नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि पर्याय-निरपेक्ष केवल द्रव्य को उपादान माना जाता है - तो एकान्त मान्यता जन्य दोष मुह नाये सामने खड़ा हो जाता है। अतः आगम के अनुसार उपादान का जो सुनिश्चित लक्षण है, उसे ही स्वीकार कर लेना चाहिये।
पंचास्तिकाय के कथनानुसार भी दोनों प्रकार के निमित्तों में मात्र प्रयोगभेद ही सिद्ध होता है, कार्यभेद सिद्ध होना असंभव है। जव समीक्षक ही मानता है कि "उपादान कर्ता ही मुख्य कर्ता होता है और वही स्वयं कार्यरूप परिणमता है" ऐसी अवस्था में उपादान के कार्य में निमित्त को