Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 161
________________ १२३ गई हो । समीक्षक ने इस पर्याय की किस श्रागम के आधार पर कल्पना की, इस सम्बन्ध में यदि वह कोई आगम प्रमाण देता तो विचार किया जाता । विशेष इस विषय में और क्या लिखें । समीक्षक के कथन में क्या रहस्य है यह तो वही जाने । कथन नं. ७३ का समाधान :- इस कथन में समीक्षक ने भावलिंग और द्रव्यलिंग की , चर्चा करके भावलिंग होने में जो द्रव्यलिंग को सहायक लिखा है सो उसमें द्रव्यलिंग को सहायक कहना उपचरित कथन है, क्योंकि भावलिंग को आत्मा अपने आत्मपुरुपार्थ के वलपर ही प्राप्त करता है, उसमें द्रव्यलिंग तो निमित्त मात्र है । इसके लिये समयसार गाथा ४०८ से लेकर ४११ तक दृष्टव्य हैं । यदि भावलिंग के होने में द्रव्यलिंग कुछ भी सहायता करने में समर्थ होता तो जिस समय इस जीव के द्रव्यलिंग की प्राप्ति होती है उसी समय उसकी सहायता से भावलिंग की भी प्राप्ति हो जानी चाहिये थी, परन्तु ऐसा नहीं होता, प्रत्युत जीवन भर गृहस्थों को उनके अनुरूप द्रव्यलिंग और मुनियों को उनके अनुरूप द्रव्यलिंग बना रहता है; फिर भी उन्हें भावलिंग की प्राप्ति नहीं होती है । इससे हम जानते हैं कि भावलिंग के होने में द्रव्यलिंग अणुमात्र भी परमार्थ से सहायता नहीं करता । भावलंग के पहले द्रव्यलिंग का होना और बात है, किन्तु भावलिंग के होने में द्रव्यलिंग परमार्थ से सहायता करता है - यह कहना और बात है । यदि द्रव्यलिंग को भावलिंग में आगम में सहायक लिखा भी है तो वह उपचार से ही लिखा है । समीक्षक "बाह्य निमित्त की सहायता से समर्थ उपादान अपना कार्य करता है" इस आग्रह को परमार्थ कहना जिस दिन छोड़ देगा उसी दिन वह जैनदर्शन के हार्द को स्वीकार कर लेगा । जहाँ भी आगम में निश्चयचारित्र की वृद्धि के लिये वाह्य चारित्र के परिपालन की बात कही गई है वह उपचार से ही कही गई है । उसे परमार्थ मान लेने पर श्रात्मा और अनात्मा में कोई भेद नहीं रह जायगा । कथन नं. -७४ का समाधान :- समीक्षक ने यह लिखा है कि "भावलिंग होने से पूर्व द्रव्यलिंग को तो उसकी उत्पत्ति के लिये कारणरूप से मिलाया जाता है ।" सो उसका ऐसा कहना भ्रमपूर्ण है क्योंकि वहीं पर हमने इस मत का खंडन करते हुए लिखा है कि " जो द्रव्यलिंग भावलिंग का सहचर होने से निमित्त संज्ञा को प्राप्त होता है वह मिलाया नहीं जाता, किन्तु परिणाम विशुद्धि की वृद्धि के साथ स्वयमेव प्राप्त होता है । आगम में द्रव्यलिंग को मोक्षमार्ग का उपचार से साधक कहा है तो ऐसे ही द्रव्यलिंग को कहा है। मिथ्या अहंकार से पुष्ट हुए बाह्य क्रियाकांड के प्रतीकस्वरूप द्रव्य लिंग को नहीं । इस प्रकार इस कथन से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि समीक्षक ने जिसे हमारा कथन बतलाकर उद्धृत किया है यह वस्तुतः उसका ही कथन है, हमारा नहीं । कथन नं. ७५ का समाधान :- इस कथन में कथन नं. ७४ के उत्तर में दिये गये पूर्वोक्त कथन को समीक्षक ने ध्यान में रखकर अपने अभिप्राय की पुष्टि में जो चार विकल्प उपस्थित किये हैं सो इन द्वारा उसने अपने कल्पित अभिप्राय को मात्र दुहराया है । उनमें ऐसी विचारणीय नवीन कोई बात नहीं कहीं गई जिसका हम समाधान करें । कथन नं. ७६ का समाधान :- इस कथन में "पूर्व में वार किया गया द्रव्यलिंग भाव लिंग का साधन है" यह लिखकर मालूम पड़ता है कि वह यह कहना चाहता है कि पूर्व में रहनेवाला

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