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खानिया तत्त्वचर्चा पृ.४५ में व्याकरणाचार्यजी ने जो मोक्ष पर्याय को स्वपर सापेक्ष लिखा है सो उसका इसी न्याय से निरसन हो जाता है, क्योंकि जीव की मोक्ष पर्याय के होने में न तो योग निमित्त है और न धर्मादि द्रव्य ही निमित्त हैं । वह विवक्षित काल में हुई इतना ही कहा जा सकता है । पर वह हुई कैसे ऐसा कोई पूछे तो यही कहा जायेगा कि वह स्वभावभूत रत्नत्रय परिणाम से परिणत प्रात्मा ने काल की अपेक्षा किये विना की। इस विषय की चर्चा हम पहले ही कर आये हैं, पर उसमें विशेषता को दिखाने के अभिप्राय से पुनः की।
अब निमित्तनैमित्तिक भाव को स्पष्ट करते हुए जहाँ भी इस विषय को स्पष्ट किया गया है, वहां असद्भूत व्यवहार के कथन को ध्यान में रखकर ही खुलासा किया गया है, इसी लिये बद्धि में यह स्वीकार किया जाता है और तदनुसार कहा भी जाता है कि प्रत्येक द्रव्य अपना-अपना परिणाम स्वयं करता है और ऐसा करता हुआ वह वाह्य निमित्त निरपेक्ष होकर स्वयं ही करता है । इसी लिये बाह्यनिमित्त की स्वीकृति असद्भूत व्यवहारनय से ही मानी जाती है, कार्यद्रव्य में बाह्य निमित्त का सहायता नाम का गुण नहीं पाया जाता और न वह उपादान की इस उयोग्यता ( कार्यरूप परिणत होने की योग्यता ) को कार्यरूप से विकसित होने के लिए प्रेरणा ही करता है, क्योंकि एक तो नित्य द्रव्य उपादान नहीं होता । जो कार्य का उपादान होता है वह कार्य द्रव्य का अव्यवहित पूर्वपर्याय रूप द्रव्य ही हाता है। उस उपादान में अनेक योग्यताएं इसलिए संभव नहीं हैं, क्योंकि वह उपादान विवक्षित योग्यता से युक्त द्रव्य-पर्याय रूप ही होता है। कार्यद्रव्य में द्रव्य का अन्वय रहता है और पूर्व पर्याय का व्यय होकर नये उत्पाद का सद्भाव बनता है, इसी लिये आगम में व्यय को ही उत्पाद कहा गया है । तथा उनके लक्षण भिन्न-भिन्न होने से वे दो माने गये हैं।
यहां वाह्य निमित्त का उपादान के उपादेय रूप होने पर उसमें सहायता नाम का अंश भी नहीं होता, इसी लिये तो उसे कार्य में असद्भूत कहा गया है और फिर भी लोक में ऐसा व्यवहार चालू है कि "इससे यह हुआ" अर्थात् इस बाह्य निमित्त से यह कार्य हुआ, · इसी लिए लोक में ऐसा व्यवहार प्रसिद्ध होने से उसे असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा ही स्वीकार किया गया है ।
अव रही आगम की बात तो समयसार में ऐसे स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं जिनसे हम यह जानते हैं कि कार्य द्रव्य में वाह्य निमित्त का अश भी नहीं होता। जिसे विवक्षित कार्य का बाह्य निमित्त कहते हैं वह स्वयं उपादान होकर अपना कार्य करता है और जिसे हम उपादान कहते हैं वह बाह्य निमित्त की अपेक्षा के बिना स्वयं अपना कार्य करता है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए समयसार में यह वचन मिलता है
एकस्स दु परिणामो पुग्गलदव्वस्स कम्मभावेण ।
ता जीवभावहेहि विणा कम्मस्स परिणामो ।। १४० ।।
जब एक ही पुद्गल द्रव्य का कर्मरूप से परिणाम होता है तो जीव के रागादिभावों को हेतु किये बिना ही पुद्गल द्रव्य का कर्मरूप परिणाम होता है (ऐसा मानना चाहिये)