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तदतिरिक्त कार्य की अपेक्षा से नहीं। यदि इसे सिद्धान्त मान लिया जाय तो जवतक वह प्रतिवन्धक सामग्री बनी रहेगी, तब तक उस द्रव्य को अपरिणामी मानना पड़ेगा। किन्तु ऐसा है नहीं, अतः परीक्षामुख में जो प्रतिवन्धक सामग्री का कथन आया है वह विवक्षित कार्य की अपेक्षा से नहीं ऐसा यहां निश्चय करना चाहिये । वस्तुतः जिसे हम प्रतिवन्धक कारण कहते हैं वह विवक्षित कार्य के अतिरिक्त उस समय अपने उपादान के अनुसार होने वाले कार्य का निमित्त ही है।
(७) चाहे लौकिक कार्य हो या पारमार्थिक कार्य हो, कार्य किसी भी प्रकार का क्यों न हो, दोनों प्रकार के ही कार्य बाह्य और अभ्यन्तर उपाधि की समग्रता में होते हैं, इसमें सन्देह नहीं। इन दोनों प्रकार के कार्यों में जो भेद होता है वह दृष्टिकोण के भेद से ही भेद होता है। लौकिक मुष्टि वाला अज्ञानी होता है। वह पर से अपने कार्य की सिद्धि मानता है, इसलिए परलक्ष्यी होने से वह पर की उठावरी में अपने को लगाये रखता है । जव कि पारमार्थिक दृष्टि वाला ज्ञानी होता है, वह अन्य कार्य की सिद्धि में सुनिश्चित स्वभाव को साधक जानकर वुद्धि में उसका पालम्बन लेकर स्वभावभूत प्रात्मा की भावना करता है। इस प्रकार जितने भी कार्य होते हैं वे अपनी-अपनी कारक सामग्री की समग्रता में नियत उपादान के अनुसार नियत समय में ही होते हैं ऐसा वह जानता है, इसलिए पाकुलित नहीं होता। कदाचित् कपाय का उद्रेक होता है तो वह उसे अपना दोष-जान कर उसे शान्त करने का यत्न करता है ।
यहाँ अभी तक जो लिखा गया है, यह उसका सार है जो सबके लिये मार्गदर्शक है। कोई भी बाह्य निमित्त हो वे अन्य द्रव्य का कार्य करते ही नहीं
समीक्षक पृष्ठ २० में "निमित्तों का कार्य में प्रवेश संभव क्यों नहीं और निमित्तों का कार्य में प्रवेश अनावश्यक क्यों" इन दो शीर्पकों के अन्तर्गत समीक्षक ने जो विचार व्यक्त किये हैं, वे पूरे वस्तुस्वरूप पर प्रकाश डालने में असमर्थ हैं, क्योकि जिन्हें हम निमित्त कहते हैं वे विवक्षित द्रव्य के कार्य के काल में स्वयं उपादान होकर अपने ही कार्यों के कर्ता होते हैं, इसलिए न तो उसका विवक्षित कार्यों में उन कार्यों के स्वचतुष्टय बनकर प्रवेश होता है और न वे परमार्थत: विवक्षित कार्यों की उत्पत्ति में सहायक ही हो सकते हैं उनमें एक काल-प्रत्यासत्तिवश या बाह्यव्याप्तिवश सहायकपने या विवक्षित कायौं के हेतु-कर्ता बनने का व्यवहार अवश्य दिया जाता है जो उपचरित होने से असद्भूत ही होता है । योग्यता से तात्पर्य . समीक्षक ने पृ० २२ (समीक्षा) में 'योग्यता से' वस्तु की नित्य उपादान शक्ति को ग्रहण . किया है, सो उसका ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि न तो केवल अन्वयरूप द्रव्य ही उपादान होता है और न केवल पर्याय ही, परमार्थ से पर्याय युक्त द्रव्य ही कार्य का उपादान होता है । यहां शंकाकार ने प्रमेयकमलमार्तण्ड का जो उदाहरण उपस्थित किया है, उसके इस वचन से ही यह सिद्ध हो जाता है कि पर्याय शक्ति से युक्त द्रव्य शक्ति ही विशिष्ट कार्य को जन्म देती है।