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साथ ही इन क्रोधादि भावों का प्रभाव हो जाने से क्रम से मोक्ष की व्यवस्था भी बन जाती है, क्योंकि ऐसा नियम है कि जिस समय यह जीव पूर्ण विज्ञान घनरूप से परिणमता है, उस समय सभी को का अभाव होकर मोक्ष की प्राप्ति नियम से होती हुई प्रतीति में आती है।
(४) समीक्षक जिस बात का हम पहले समाधान कर आये हैं, उसका उल्लेख करते हुए पुनः इसी बात को दोहराते हुए लिखता है-"यह तो सर्वसम्मत है कि जीव अनादिकाल से विकारी हों रहा है । विकार का कारण कर्मवन्ध है, क्योंकि दो पदार्थो से परस्पर वन्ध बिना विकार नहीं होता। कहा भी है-"द्वयकृतो लोके विकारो भवेत् ।" (समीक्षा पृ०-१) । - यद्यपि इस शंका का हम पहले प्रतिशंका ३ का उत्तर लिखते समय समाधान कर आये हैं, फिर भी वह उसे पुनः उपस्थित कर रहा है, इसलिए पूर्व में किये गये समाधान को ध्यान में रखकर यहाँ पुनः इसका समाधान किया जाता है
समीक्षक का कहना है कि 'अनादिकाल से जीव विकारी हो रहा है। विकार का कारण कर्मवन्ध है । इसके समाधान स्वरूप हमारा इतना ही कहना है कि विकार का कारण कर्मवन्ध है यह तो उपचार से ही कहा जाता है । यह कथन परमार्थ से देखा जावे तो स्वयं जीव ही अपने अज्ञान के कारण विकार का कर्ता हो रहा है । समीक्षक ने जो पद्मनन्दि पंचविशंति का 'द्वयकृतो लोके विकारो भवेत' यह वचन उद्धत किया है तो यह वचन भी असद्भूत व्यवहार और निश्चय दोनों को ध्यान में रखकर ही लिखा गया। परमार्थ से देखा जाये तो आत्मा ही आप अज्ञानभाव के कारण विकार का कर्ता होता है, और असद्भूत व्यवहार से देखा जावे तो जो भी विकार उत्पन्न होता है असद्भूत व्यवहार नय से परको निमित्त कर ही होता है । यही उस वाक्य का अर्थ है।
, (५) यहाँ तक हमने, समीक्षकने अपनी शंकाओं को दुहराते हुये जो उद्धरण उपस्थित किये हैं, उनका पुनः समाधान किया है । आगे उसने जो अपनी शंका के प्राशय को स्पष्ट किया है, उसका प्राशय स्पष्ट किया जाता है ?
. (६) समीक्षक अपनी शंका को स्पष्ट करते हुए (समीक्षा पृ०३) जो यह लिखता है कि उत्तर पक्ष को अपना उत्तर या तो ऐसा देना चाहिये था कि द्रव्य कर्म का उदय संसारी प्रात्मा के विकार भाव और चतुर्गति भ्रमण में निमित्त होता है अथवा ऐसा होना चाहिए था कि वह उसमें निमित्त नहीं होता है-संसारी आत्मा का विकारभाव और चतुर्गति द्रव्यकर्म के उदय के निमित्त हुए बिना अपने आप ही होता रहता है । (समीक्षा पृ०३)
इसके समाधान स्वरूप हमारा कहना यह है कि समीक्षक आदि ने अपनी पहली शंका उपस्थित की थी, उससे यह स्पष्ट . झलकता था कि जीव का विकार भाव कर्मोदय से ही होता है, जबकि वस्तुस्थिति यह है कि जीव जब परलक्षी दष्टि अपनाता है, तव कर्मोदय को निमित्त
सहजविजृम्भामाणचिच्छक्तितया यथा यथा विज्ञानघनस्वभावो भवतीति तथा तथास्त्रवेभ्यो निवर्तते, यथा यथासवेभ्यो निवर्तते तथा तथा विज्ञानघनस्वभावो भवतीति। .
स० प्रा०, गा० ७३ श्रात्मत्याति टीका।