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(१८) पृष्ठ ३४३ में उसका कहना है कि "सभी कायों की उत्पत्ति में पं० फूलचन्दजी द्वारा उक्त स्वभाव आदि सभी के समवाय को कारण मानना असंगत है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य का प्रतिक्षण जो पड्गुण हानि-वृद्धि रूप स्व पर प्रत्यय परिणमन हो रहा है, उसमें निमितों की कारणता
(१९) पृष्ठ ३५४ में उमका यह भी कहना है कि "वस्तु की शुद्ध पर्याय पर निरपेक्ष (केवल स्व प्रत्यय) होते हुये भी कालनिमित्तक तो वह है ही....... "काल किमी भी वस्तु के किसी भी परिणमनमें निमित्त नहीं होता है।" ............. केवल इतना अवश्य है कि काल उग परिणमन का समय, आवलि"""" आदि के रूप में विभाजन मात्र करना रहता है ।"........." परन्तु स्वप्रत्यय परिणमन में काल के अन्वय-व्यतिरेक के घटित होने की कभी संभावना नहीं है।
(२०) पृष्ठ ३५६ में वह लिखता है कि "परन्तु वास्तविकता यही है कि उपादान हमेशा द्रव्य ही हुआ करता है । वह पर्याय विशिष्ट ही होता है यह दूसरो वान है लेकिन पर्याय तो कार्य में ही अन्तर्भूत होती है, वह उपादान कभी नहीं होती।"
ये कुल २० वचन हैं । इन्हें जनतत्व मीमांसाके मीमांसक ने अपने मतको पुष्टि में जनतत्व मीमांसा की मीमांसा नामक पुस्तक में निबद्ध किया है। अब यहाँ उन पर क्रमशः विचार किया जाता है। उनमें नं० १, २, ३ और १७ के जो वक्तव्य हैं, जिनमें उपादान की पोर दुर्लव्य करके मीमांसक ने मात्र निमित्त के बल पर कार्यकी उत्पत्ति स्वीकार की है। उपादान को वह मात्र "उसमें कार्य होता है" इस रूप में स्वीकार करता है, या उपादान में वह नाना उपादान शक्तियों का सद्भाव स्वीकार करता है (वरया ग्रन्थ १६) अन्यथा यह यह कभी नहीं लिखता कि उसमें (उपादान में) नाना कार्यों की उत्पत्ति संभव रहनेके कारण वही कार्य उत्पन्न होगा जिसके अनुकूल निमित्त कारण सामग्री का सद्भाव और वाधक कारण सामग्री का अभाव होगा या वह (वक्तव्य नं० १७ बरैया, पृष्ठ ३३३) के अनुसार यह भी कभी नही लिलता कि "जो मिट्टी में जिसप्रकार कुम्भ निर्माणका कर्तृव्य विद्यमान है, उसीप्रकार कुम्भकार व्यक्तिमें भी कुम्भ निर्माणका कर्तृत्व विद्यमान है।" सम्भवतः वह अपने इन्हीं अभिप्रायोंको ध्यान में रखकर अपनी समीक्षा पृष्ठ ५ में निमित्तको सहायक रूप में भूतार्थ स्वीकार करता है। अतः यहाँ पर मीमांसक के द्वारा प्रतिपादित सभी मुद्दों को ध्यान में रखकर सप्रमाण विचार किया जाता है।
उसमें भी सर्वप्रथम हम उपादान के लक्षण पर पागमानुसार सप्रमाण वित्रार करते हैं :
अष्टसहस्त्री पृष्ठ १०० में प्रागभाव और उपादान को एक वत्तलाते हुये ऋजुमूत्रनयने लिखा है :
"ऋजुसूत्रनयापर्णाद्धि प्रागभावस्तावत्कार्यस्योपादानपरिणाम एव पूर्णोऽनन्तरात्मा।"
ऋजुसूत्रनयकी विवक्षा से तो कार्य का उपादान परिणाम अनन्तर (अव्यवहित) पूर्व पर्याय ही प्रागभाव है । अष्टमहस्त्री के इस वचन द्वारा तो अव्यवहित पूर्व पर्यायको ही विवक्षित कार्य का उपादान स्वीकार किया गया है और ऐसा स्वीकार करते हुये न तो उपादानमें एक काल में अनेक कार्य करने की शक्तियां स्वीकार की गयी हैं और न ही उपादान को जब जैसा निमित्त