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परीक्षामुख के इस सूत्र से भी उपादान के इस लक्षण की पुष्टि होती है; यथा
"पूर्वोत्तरचारिणोः कार्यकारणयोश्चः क्रमभावः" (अ.३ सू १८) पूर्व और उत्तरचारी में तथा कार्यकारण में क्रमभाव नियत अविनाभाव होता है।
(४) यहां पर कार्य-कारण भाव का कथन करते समय, उससे उपादान-उपादेय भाव का ही ग्रहण किया गया है, क्योंकि जितने भी वाह्य निमित्त होते हैं उनका सद्भाव आगम में कार्यकाल में ही किया गया है। जैसे जव क्रोध कपाय कर्म का उदय होता है उसी समय क्रोध परिणाम होता है।
यद्यपि कपाय कर्म चार हैं, उनमें से किस कृपाय कर्म का उदय हो उसकी व्यवस्था एक समय पूर्व बन जाती है, वही उदयरूप कपाय कर्म का उपादान है। और इसके उदयकाल में प्रात्मा भी स्वयं उस कपाय रूप परिणम जाता है। यहां हमने कर्म के उदय की मुख्यता से कपाय परिणाम का विचार किया है, इसी बात को यदि आत्मा को मुख्य कर के कहा जावे तो ऐसा कहा जावेगा कि जिस समय प्रात्मा क्रोध कषाय रूप परिणाम करता है उसी समय क्रोध कपायकर्म का उदय होता है । इस प्रकार इन दोनों में समव्याप्ति है । काल प्रत्यासत्ति इसी का दूसरा नाम है ।।
अतः समीक्षक का यह कहना, कि प्रेरक निमित्त के अनुसार कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है, जिनागम के सर्वथा विपरीत है, क्योंकि वाह्य निमित्तों की सत्ता उपादान काल में ही मानी गयी है, ऐसी अवस्था में प्रेरक निमित्तों के बल पर कार्य का आगे-पीछे किया जाना कैसे संभव हो सकता है ?
(५) बाह्य. निमित्त और कार्य एक काल में होते हैं, इसकी पुष्टि छहढाला के इस वचन से भी होती है
• सम्यक साथे ज्ञान होय पे भिन्न अराधो।
• लक्षरण श्रद्धा जान दुहू में भेद बाघो॥ सम्यग्दर्शन निमित्त कारण है, और सम्यग्ज्ञान कार्य है, फिर भी ये दोनों एक समय में युगपत होते हैं, फिर भी ये दो हैं क्योंकि सम्यग्दर्शन का लक्षण श्रद्धा है और सम्यक्ज्ञान का लक्षण ज्ञान है, यह इन दोनों में वाधा रहित भेद है।
• जैसे जिस समय क्रोध कपाय का उदय होता है उसके एक समय पूर्व उदयावलि में स्थित उस समय शेष ३ कषायों के कर्म परमाणु स्तिवुकसंक्रमण द्वारा स्वयं क्रोध कर्मरूप परिणम जाते हैं - ऐसी व्यवस्था है।
. (६) केवल पर्याय उपादान नहीं होती और न केवल द्रव्य ही उपादान होता है, किन्तु विकसित पर्याययुक्त द्रव्य ही अगली पर्याययुक्त द्रव्य का उपादान होता है। इस तथ्य का समर्थन तत्वार्थश्लोकवार्तिक के इस वचन से भी होता है - .
दर्शनपरिणामपरिणतो ह्यात्मा दर्शनम । तदुपादानं विशिष्टज्ञानपरिणामस्य निष्पत्ते, पर्यायमात्र निरन्वयस्य जीवादिद्रव्यमानस्य च सर्वथोपादानत्वायोगात् कर्मरोमादिवत् । (त. श्लो., त. चि. पृ.-५१५)