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भास्कर
[माग ६
और कहा जाता है कि यही चन्द्रगुप्त ने समाधिमरण किया था। अनेक शिलालेखों मे भी भद्रबाहु के साथ चन्द्रगुप्त मुनि का उल्लेख आया है। साहित्य मे भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त की कगा को सविस्तर रूप से वर्णन करनेवाले ग्रन्थ हरिषेणकृत वृहत्कथाकोष, रत्ननन्दिकृत भद्रबाहु-चरित, चिदानन्दकृत मुनिवंशाभ्युदय और देवचन्दकृत राजावलिकथे है। पश्चिमी विद्वानो मे ल्यूमन, हानले, टामस व राइस साहब ने मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के जैनधर्मी होने की बात स्वीकार की है। स्मिथ साहब पहले इस मत के विरुद्ध थे, किन्तु अन्त में उन्हे भी कहना पड़ा कि “चन्द्रगुप्त मौर्य का घटनापूर्ण राज्यकाल किस प्रकार समाप्त हुआ इस पर ठीक प्रकाश एकमात्र जैन कथाओ से ही पड़ता है। जैनियो ने सदैव उक्त सम्राट को विम्बसार (श्रेणिक) के समान जैन धर्मावलम्बी माना है और उनके इस विश्वास को झूठ कहने के लिये कोई उपयुक्त कारण नही है ।" जायसवाल महोदय लिखते हैं कि "प्राचीन जैन ग्रन्थ और शिलालेख चन्द्रगुप्त को जैनराजर्पि प्रमाणित करते है। मेरे अध्ययन ने मुझे जैन ग्रन्थों की ऐतिहासिक वार्ताओं का आदर करने को बाध्य किया है। कोई कारण नहीं है कि हम जैनियों के इस कथन को कि चन्द्रगुप्त अपने राज्य के अन्तिम भाग मे राज्य को त्याग जिनदीक्षा ले मुनिवृत्ति से मरण को प्राप्त हुए, न मानें" इत्यादि। इस प्रकार अधिकांश विद्वानो का झुकाव अब चन्द्रगुप्त और भद्रबाहु की कथा के मूल अंश को म्वीकार करने की ओर है। __ भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त की दक्षिण-यात्रा का दक्षिण भारत और जैनधर्म के इतिहास पर वडा भारी प्रभाव पड़ा। जैन मुनियो ने सर्वत्र विहार कर के जैनधर्म का खूब प्रचार किया। राजनीति और साहित्य दोनो पर इस प्रचार का भारी प्रभाव पड़ा। क्रमशः गंग, कदम्ब, रस, पल्लव, सन्तार, चालुक्य, राष्ट्रकूट और कलचूरि राजवंशो मे जैनधर्म की मान्यता के प्रचुर प्रमाण उपलभ्य है। धवल सिद्धान्त के मूलाधार ग्रन्थ पखण्डागम की रचना वनवास और तामिल देश मे विक्रम की दूसरी शताब्दि मे हुई थी। अनेक सर्वोपरि प्रमाण जैन ग्रन्थों के रचयिता श्रीकुन्दकुन्दाचार्य ने भी इसी भूभाग को अलंकृत किया था। समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्दी. वीरसेन. जिनसन, गुणभद्र, महावीराचार्य, पुष्पदन्त, नेमिचन्द्र आदि दिगम्बर-समाज के प्रमुख आचार्यों की रचनाओं का इसी प्रदेश मे अवतार हुआ था। तामिल भाषा के साहित्य को परिपुष्ट करने नथा कन्नड भाषा मे साहित्य उत्पन्न करने का श्रेय जैन पाचार्यों को ही है।
श्रवणबेल्गोल इस सब सामाजिक और साहित्यिक प्रगति का केन्द्र था। धर्म को इसी विपुल और विशाल उन्नति को ही मानो मन्त्रिराज चामुण्डराय ने गोम्मेटेश्वर की स्थापना-द्वारा
तिमान स्वरूप दे दिया है जिससे यहां चिरकाल तक धर्म प्रभावना होती रहे और यावचन्द्रदिवापरम जैनधर्म की जयजयकार बोली जाये।