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भास्कर
[भाग ६
चन्द्रकुण्डली के अनुसार फल वृप राशि का चन्द्रमा है और यह उच्च का है तथा चन्द्रराशीश चन्द्रमा से बारहवां है और गुरु चन्द्र के साथ मे है, तथा चन्द्रमा से द्वितीय मंगल और दसवें बुध तथा बारहवें शुक्र है। अत एव गृहाध्याय के अनुसार गृह 'चिरंजीवी' योग होता है। इसका फल मूर्ति को चिरकाल तक स्थायी रहना है। कोई भी उत्पात मूर्ति को हानि नहीं पहुंचा सकता है। परन्तु ग्रह स्पष्ट के अनुसार तात्कालिक लग्न से जब आयु बनाते है तो परमायु तीन हजार सात सौ उन्नीस वर्ष, ग्यारह महीने और १९ दिन आते हैं।
मूर्ति के लिये कुण्डली तथा चन्द्रकुण्डली का फल उत्तम है और अनेक चमत्कार वहाँ पर हमेशा होते रहेंगे। भयभीत मनुष्य भी उस स्थान मे पहुंच कर निर्भय हो जायगा।
इस चन्द्रकुण्डली मे 'डिम्भाख्य' योग है। उसका फल भी अनेक उपद्रवों से रक्षा करना तथा प्रतिष्टा को बढ़ाना है। कई अन्य योग भी हैं किन्तु विशेष महत्त्वपूर्ण न होने से नाम नहीं दिये है।
प्रतिष्ठा के समय उपस्थित लोगो के लिये भी इसका उत्तम फल रहा होगा। इस मुहूर्त में वाण पंचक अर्थात् रोग, चोर, अग्नि, राज, मृत्यु इनमे से कोई भी वाण नही हैं। अत. उपस्थित सन्जनों को किसी भी प्रकार का कष्ट नही हुआ होगा। सब को अपार सुख एवं शान्ति मिली होगी।
न लग्न, नवांश, पड्वर्गादिक मे ज्योतिप-शास्त्र की दृष्टि से कोई भी दोष नहीं है प्रत्युत अनेक महत्त्वपूर्ण गुण मौजूद हैं। इससे सिद्ध होता है कि प्राचीन काल मे लोग मुहूर्त, लमादिक के शुभाशुम का बहुत विचार करते थे। परन्तु आजकल की प्रतिष्ठाओ मे मनचाहा लन तथा मुहूर्त ले लेते हैं जिससे अनेक उपद्रवो का सामना करना पड़ता है। ज्योतिप-शास्त्र का फन असत्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि काल का प्रभाव प्रत्येक वस्तु पर पड़ता है और फाल को निप्पत्ति ज्योतिप-देवों से ही होती है। इसलिये ज्योतिप-शास्त्र का फल गणितागत बिल्लाल सत्य है। 'प्रत एव प्रत्येक प्रतिष्ठा में पञ्चाङ्ग-शुद्धि के अतिरिक्त लग्न, नवांश, पड्वर्गादिक का भी सूक्ष्म विचार करना अत्यन्त जरूरी है।