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किरण ४ ]
श्रवणबेलगोल के शिलालेख
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१४ अनादि पंचरणमोकार मंत्र का उल्लेख 'पंचनमस्क्रिया' रूप में लेख नं० ४९ (शक संo १२३५) और लेख नं० ४४ (शक सं० २०४३) में 'पंचपद ' रूप में है ।
१५ लेख नं० ४१ (शक १२३५ ) में माया (शल्य), जैनमार्गप्रभाव ( प्रभावना), कोपादि (कषाय), प्रार्त और रौद्र परिणामों का उल्लेख है ।
१६ लेख नं० ४२ ( शक १०९९) मे 'सप्त महाऋद्धियों' और 'चारणऋद्धि' का उल्लेख है।
१७ उपर्युक्त लेख में आगे 'शल्यलय' - 'गारवलय' - 'दंडल' का उल्लेख हैं । माया-मिथ्या-निदान तीन शल्य है। मनोदण्ड, वचनदण्ड, कायदण्ड, यह तीन दण्ड है। तीन गारव से क्या भाव है, यह गवेषणीय है ।
१८ लेख नं० ४३ ( शक १०४५) में पारंगत और वात्सल्य गुरण का उल्लेख है ।
मुनियों की जीवदया वृत्ति, जैन सिद्धांत राद्धान्त) इसी लेख मे पंचेन्द्रियदमन का भी उल्लेख है । नरेश की भावज जयकरणव्वे की धार्मिकता करने, सत्य व शीलव्रत पालने, गुरुभक्ति उन्हें 'भव्यक्क' कहा है ।
१९ उपर्युक्त लेख में आगे विष्णुवर्द्धन का परिचय कराते हुए श्राविकाओं द्वारा जिनपूजा करने और विनय धर्म को पालने का उल्लेख है । २० लेख नं० ४४ ( शक १०४३) में श्रावक की दैनिक चर्या का वर्णन श्रावक मार का चित्रण करते हुए किया गया है। जिनपूजा करना, जिनेन्द्र की वंदना करना, मुनिजनों की निकटता मे मन लगाना, सारा समय जिनमहिमा के प्रसारित करने में खर्च करना और दान देना श्रावक का महान् कर्तव्य है । आहार, अभय, भैषज्य और शास्त्र इस प्रकार दान चार तरह का बताया है । इन दानों का अन्य लेखों मे भी उल्लेख है । पूजा मे अर्चन और अभिषेक दोनों सम्मिलित थे ।
२१ लेख नं० ५६ ( शक १०३७) मे विनय, सत्य, शौच, वीर्य, शौर्य और सर्वसंग - परित्याग धर्मो का उल्लेख है ।
२२ लेख नं० ४७ (शक १०३७) में परीषह, दशलक्षणोत्तम महाधर्म और आत्मसंवेदन गुण का उल्लेख है । इसी लेख मे आगे शील, समिति, गुप्ति, दण्ड, शल्यादि का भी उल्लेख है । 'रत्न' धर्म संसारसागर से पार पहुंचने के लिए पोत बताया है । इसी में आचार्य के 'पनिशद्गुणों' का उल्लेख है । और शब्दविद्या, तर्कविद्या एवं सिद्धांतविद्या के पारगामी को ' त्रैविद्य' घोषित किया है । इसी मे 'पल्यङ्कासन' और 'उरुमपानदान ( मुनिदान) का उल्लेख है ।
* 'गाव' इच्प्रार्थक शब्द है । गारवलय ये हैं- (१) ऋदिगार (२) रसगाव (३) सातगाव 1 ( भगवती आराधना )
- के० बी० शास्त्री
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