Book Title: Jain Siddhant Bhaskar
Author(s): Hiralal Jain, Others
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 44
________________ [ भाग ६ भास्कर २३ ं लेख नं० ५२ (शक १०४१ ) मे पंच महाकल्याण, अष्ट महाप्रातिहार्य और चतुस्त्रिशद् | अतिशयों से | मण्डित अर्हद्भगवान् का उल्लेख है, जिनके मुख- कमल से सदसन्निरूपक जिनवाणी निर्गत हुई थी । २३८ २४ लेख नं० ५३ ( शक १०५०) मे 'पण्डितमरण' का उल्लेख है । २५ लेख नं०-८० (शक १०८०) व नं० ८६ मे अष्टविधार्चन और मुनि आहार का उउल्लेख हैं । इन धर्मकार्यों के लिये धर्मात्मा पुरुष दान किया करते थे । २६ लेख नं० ८२ ( शक १३४४ ) मे पंच पापों से दूर रह कर देशव्रतों को पालने तथा सुपात्रों को दान और दीन-जनों को करुणादान देने का उल्लेख है । (हिंसानृतान्यवनित व्यसनं सचौर्य्य, मूर्च्छा च देशवशतोऽस्य बभूव दूरे || दानं चास्य सुपात्र एवं करुणा दीनेषु, इत्यादि) और २७ लेख नं० ९३ ( शक ११९७ ) मे पुष्पमालायें नित्य चढ़ाने का उल्लेख है । नं० ९४ मे गोम्मट के अभिषेक के लिए दुग्धदान का उल्लेख है । नं० ९५ में गोम्मटदेव के नित्याभिषेक के लिए दान देने का उल्लेख है । २८ लेख नं० १०५ (शक १३२० ) में अंग - पूर्वगत जिनवाणी का उल्लेख है । इसा लेख में श्वेताम्बरादि विपरीत मतों का उल्लेख है । ( सिताम्बरादौ विपरीतरूपे खिले विसंघे वितनोतु भेदं) २९ लेख नं० ११३ ( शक १०९९) मे उभय- नय, त्रिदण्ड, त्रिशल्य, चतुः कषाय, चतुर्विध उपसर्ग गिरिकंदरादिक आवास, पंद्रह प्रमाद, पंचाचार – वीर्याचार, षट्कर्म, सप्तनय, अष्टाङ्गनिमित्तज्ञान, प्रष्टविधज्ञानाचार, नवविधब्रह्मचर्य, दशधर्म, एकादशश्रावकाचार — देशव्रताचार, द्वादशतप, द्वादशाङ्गश्रुत, त्रयोदशाचार, शीलगुण, जीव-भेद (विज्ञान), जीवदया और चतुः संघ का उल्लेख है । ३० उपर्युक्त लेख मे ही अनेक आचार्यो, कलियुग के गणधर, पचास मुनीन्द्रों, आर्यिकाओं और अट्ठाइस संघों द्वारा एकत्रित होकर पञ्चकल्याणोत्सव मनाने का उल्लेख है । ३१ लेख नं० ४१३ व ४१४ मे विजयधवल और जयधवल के नाम है; जो संभवतः सिद्धांतग्रन्थों के द्योतक हैं । उपर्युक्त सैद्धांतिक उल्लेखों का सामञ्जस्य प्रचलित जैनसिद्धांत से है और यह उसकी वैज्ञानिकता स्पष्ट करता है । धार्मिक उदारता अब आगे पाठकगण देखें कि उस समय जैनसिद्धांत को माननेवाले कितना उदार धार्मिक एवं सामाजिक दृष्टि रखते थे। वह लोक से मिथ्यात्व को मिटा कर सम्यक्त्व का आलोक फैलाने में दत्तचित्त थे —— जीवमात्र के प्रति उनके हृदय मे करुणा का भाव था । तत्कालीन जैन -

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