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भास्कर
[माग ६
को पालने के लिये 'सल्लेखनाव्रत' का विधान किया है। यहाँ पर उसी का उल्लेख 'सन्यास' नाम से हुआ है।
४ लेख नं० १७-१८ (शक सं० ५७२) मे 'अशनादिका त्याग कर के पुनर्जन्म - को जीतने का उल्लेख है। जैनसिद्धान्त मे संसारी जीव को भवभ्रमण करते माना गया है
और अशनादि का जिसमे त्याग किया जाता है उन तपों और व्रतों को पाल कर उसके अन्त फरने का भी विधान मिलता है।
५ लेख नं० २० (शक० ६२२) 'सुरलोक-विभूति' को प्राप्त करने का उल्लेख है। व्रतादि पालन का फल सुरलोक के वैभव को प्राप्त करना इससे स्पष्ट है । लेख नं० २८ (शक ६२२) से स्पष्ट है कि स्त्रियाँ भी बारह प्रकार के तपों और व्रतों को पाल कर के सुरलोक का सुख प्राप्त करती थीं। इस लोक से परे सुरलोक का होना वह मानते थे।
६ लेख नं० २२ (शक १०२२) से 'देववन्दना' करना आवश्यक प्रमाणित होता है।
७ लेख नं० २४ (शक ७२२) से श्रावको द्वारा 'मौनव्रत' पालने और 'दान देने का उल्लेख है।
८ लेख नं० २६ (शक ६२२) मे रूप-धन-वैभव की अनित्यता को दरसा कर 'अनित्यभावना' का चित्रण किया गया है। संवरतत्व मे अनित्यादि बारह भावनाओं का चिन्तन करने का विधान भी जैनसिद्धांत मे हैं।
९ लेख नं० २७ (शक ६२२) मे आर्यिकाओं के समाधिमरण करने का उल्लेख है जिससे स्त्रियो की धार्मिकता का अनुभव होता है।
१० लेख नं० २८ (शक ६२२) मे 'द्वादशतप' का उल्लेख है अर्थात् तब भी लोग अनशनादि चारह प्रकार के तपों से विज्ञ थे।
११ लेख नं० २९ (शक ६२२) मे 'उत्साह और आत्मसंयम-सहित समाधिवत' पालने का उल्लेख है। 'मूलाचार' मे उत्साह-भावना का विधान मिलता है ।
१२ सल्लेखना के लिये मृत्यु का अवश्यम्भावी ज्ञान होना आवश्यक है। लेख नं. ३२ (शक ६२२) व नं० ३३ (शक ६२२) इसी सिद्धांत के पोपक हैं। इनमे लिखा है कि 'मृत्यु का समय निकट जानकर' और 'अब मेरे लिए जीवन असंभव है' यह कह कर मुमुक्षुओं ने सल्लेखना व्रत आराधा। लेख नं० ३८ (शक ८९६) मे तीन दिन तक सल्लेखना पालने का उल्लेख है और लेख नं०४४ से स्पष्ट है कि सल्लेखनाव्रत मे एक करवट मे लेटने और पंचनमस्कारपद का उच्चारण करना भी प्रचलित था।
१३ लेख नं० ३८ (शक सं० ८९६) मे 'धर्ममङ्गल' को नमस्कार करने का उल्लेख है। प्राचीन नमस्कार मंत्र मे 'चत्तारि मंगलं' मे 'धर्म-मङ्गल' भी एक बताया गया है। (फेवजिपएणत्तो धम्मो-मगलं)।
-दाह भावणाम पसम सेवा सुदसणो सदा । इत्यादि