Book Title: Jain Siddhant Bhaskar
Author(s): Hiralal Jain, Others
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 29
________________ किरण ४] पाणिनि, पतञ्जलि और पूज्यपाद ३३१ शुद्ध समझे जाते थे, कात्यायन के समय में वे या तो अशुद्ध समझे जाने लगे थे, या उनका प्रचार नहीं रहा था। यथा-"इन्धिभवतिभ्याञ्च” (१-२-६), पाणिनि का यह सूत्र इन्ध्र और भू धातु से परे लिट को कित् करता है, किन्तु कात्यायन उसका निषेध कर' हुए कहते हैं--"इन्धेश्छन्दोविषयत्वाद् भुवो खुको नित्यत्वात्ताभ्यां किद्ववचनानर्थक्यम् । कात्यायन को वार्तिकों से दूसरी बात यह मालूम होती है कि उस समय कुछ शब्दों का जो अर्थ प्रचलित था, पाणिनि उससे अनभिज्ञ थे। यथा-पाणिनि लिखते है'अरण्यान्मनुष्ये' (४-२-१३९), इससे स्पष्ट है कि वह आरण्यक का अर्थ 'जंगल में रहनेवाला मनुष्य' करते है। किन्तु इस पर पतञ्जलि 'अत्यल्पमिदमुच्यते मनुष्य इति' लिख कर लिखते हैं-'पथ्यध्यायन्यायविहारमनुष्यहस्तिष्विति वक्तव्यम् । यह कात्यायन को वार्तिक है जो आरण्यक का अर्थ जंगल को रास्ता, जंगली हाथी, प्रारण्यक' अध्याय आदि बतलाता है। ___ पाणिनि के विशिष्ट अभ्यासियों ने कात्यायन और पाणिनि का पौर्वापर्य बतलाने के लिये इस तरह की बहुत सी बाते महाभाष्य से खोज निकाली है, उनके देने से लेख का व्यर्थ कलेवर बढ़ जायगा। हमारा इस चर्चा से केवल इतना ही बतलाने का अभिप्राय है कि पाणिनि और पतञ्जलि की समकालीनता तो असम्भव है ही किन्तु पाणिनि के सूत्रों पर वार्तिकों के रचयिता कात्यायन भी पतञ्जलि के समकालीन नहीं थे। इन तीनों ग्रन्थकारों की रचनाओं के तुलनात्मक अध्ययन से जो निष्कर्ष निकलता है उस पर विचार करते हुए पाणिनि और पतञ्जलि के बीच में कम से कम २०० वर्ष का अन्तर मानना होगा, क्योंकि इतना अन्तराल माने बिना शब्दशास्त्र की वे समस्याएं हल नहीं हो सकतीं, जो उक्त तीनों रचनाओं के क्रमिक अध्ययन से ज्ञात होती हैं और जिनका आभास-मान ऊपर कराया गया है। अतः पाणिनि को ईसा की पांचवीं शताब्दी के मध्य या अन्त का विद्वान् मानने पर पतञ्जलि को सातवीं शताब्दी का विद्वान् मानना होगा। इसका मतलब यह हा कि भाष्यकार पतञ्जलि प्रसिद्ध वैयाकरण भर्तृहरि के समकालीन थे, जिनका मरण ६० ६५० में हुआ था। किन्तु भतृहरि ने अपने वाक्यपदीय-नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ के द्वितीय काण्ड के अन्त में महाभाष्य का जो इतिहास दिया है, वह इस स्थिति पर अचा १ इसीपर से विद्वानों का यह विचार है कि पाणिनि वैदिक शास्त्र आरण्यकों से अनभिज्ञ थे, क्योंकि उन्होंने आरण्यक शब्द का अर्थ 'आरण्यक अध्याय' नहीं किया, जैसा कि कात्यायन ने किया है। अतः वे आरण्यकों की रचना से पहले हुए हैं।

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