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भास्कर
[भाग ६
प्रकाश डालता है। भर्तृहरि लिखते है
"प्रायेण संक्षेपतश्च नव्यविद्यापरिग्रहान् । संप्राप्य वैयाकरणान संग्रहे समुपागते ॥ कृतेऽथ पातञ्जलिना गुरुणा तीर्थदर्शिना । सर्वेषां न्यायबीजानां महाभाष्ये निबन्धने ॥ अलब्धगाधे गाम्भीर्यादुत्तान इव सौष्ठवात् । तस्मिन्नकृतबुद्धीनां नैवावस्थितनिश्चयः ॥ वैजिसौभवहर्यक्षैः शुष्कतर्कानुसारिभिः । आर्षेनिलाविते अन्थे संग्रहप्रतिकञ्चुकैः ॥ यः पातजलिशिष्येभ्योऽभ्यष्टो व्याकरणागमः । कालेन दाक्षिणात्येषु ग्रन्थमात्रे व्यवस्थितः ॥ पर्वतादागमं लब्धा भाष्यबीजानुसारिभिः । स नीतो बहुशास्त्रत्वं चन्द्राचार्यादिमि पुनः॥ न्यायप्रस्थानमागाँस्तानभ्यस्य स्वं च दर्शनम् ।
प्रणीतो गुरुणाऽस्माकमयमागमसंग्रहः ॥" अर्थात्- नव्य विद्या के पारगामी वैयाकरणों की तथा (व्याडि के) संग्रह की सहायता से पतञ्जलि ने अपने महाभाष्य में समस्त न्यायों का निवन्धन किया। जब लोगों को यह मालूम हुआ कि यह महाभाष्य बहुत गम्भीर है अत इसकी गहनता का पता लगाना फठिन है, तथा अकृतबुद्धि जन उसमें दृढ़ निश्चय नहीं रह सकते। तव शुष्क तर्क के अनुसर्ता, वैजि, सौभव और हर्यक्ष नाम के चैयाकरणों ने, जो संग्रह के तरफ़दार थे, पतञ्जलि के भाष्य को छिन्न-भिन्न कर डाला। पतञ्जलि के शिष्यों से उसका ग्रन्थ पुनः प्राप्त हो सका और उसकी एक कापी कुछ समय तक दक्षिण में रही। चन्द्रादि आचार्यों ने पर्वत से इस ग्रन्थ को प्राप्त किया और उसको बहुत सी पुस्तकों में कर दिया (अर्थात् उसकी बहुत सी प्रतिलिपियाँ करा डालीं)। मेरे गुरु ने उन न्यायों का तथा अपने दर्शन का अभ्यास करके यह प्रागम संग्रह बनाया।
इस उल्लेख से कम से कम इतनी बात तो स्पष्ट है कि भर्तृहरि के जन्म से बहुत पहले महाभाप्य को रचना हो चुकी थी। चीनी यात्री इत्सिंग के उल्लेखानुसार भर्तृहरि की मृत्यु ई० ६५० में हुई है। यदि उनकी मृत्यु से १५० वर्ष पहले भी पतञ्जलि का काल
१ ये श्लोक गोल्डस्टूकर के ग्रन्थ से लिये गये हैं।
२ इत्सिंग ने लिखा है कि भर्तृहरि ने महाभाष्य पर एक वृत्ति रची थी। कुमारिल के तंत्रवातिक पृ० २२३ मे भी मत हरि की इस टीका का उल्लेख मिलता हैं।