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श्रवणबेलगोल के शिलालेख [लेखक-श्रीयुत वा० कामता प्रसाद जैन, एम० आर० ए० एस०]
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"कोळविदु हालुगोळनोविदु अमुर्तगोळनोविदु, ग नदियो तुङ्गवद्रियो मङ्गलागौर्याविदु, रुन्दवनवोविदु शृङ्गारतोटवो। अयि अयिया अयि अयिये वले तीर्स वले तीत जया जया जया जय ॥"
"यह दुग्धकुण्ड है या कि अमृतकुण्ड ? यह गङ्गा नदी है या तुङ्गभद्रा या मङ्गल गौरी ? यह वृन्दावन है कि विहारोपवन ? ओहो ! यह तो क्या ही उत्तम तीर्थ है ?"
-शिलालेख नं०१२३ । सोलहवीं शताब्दी के एक भक्त-हृदय से श्रवणबेलगोल जैन-तीर्थ के दर्शन करने पर उपर्युक्त शद-लहरी झंकृत हुई थी! श्रवणबेलगोल का श्वेत सरोवर ही मन को हरनेवाली वह चीज़ है जिस पर यात्री की आँख जाकर टकराती हैं। भक्त उसे देखकर अचरज में पड़ता है और पूछता है कि क्या वह दुग्धकुण्ड, अमृतकुण्ड, गङ्गा अथवा तुगभद्रा है ? फिर
आगे जब वह अपनी दृष्टि पसारता है और सुन्दर-सघन वनस्पति एवं बहुमूल्य मंदिर-मूर्तियों से समलंकृत शैल-शिखिर देखता हैं तो बरबस मुग्ध होकर वह फिर विस्मय से पूछता है कि 'क्या यह वृन्दावन है या विहारोपवन ?' वह भूल जाता है कि वृन्दावन के पास कालिन्दी
और गोबद्ध न ज़रूर हैं, परंतु हरे-हरे सघन वृक्ष-समूह वहाँ न-कहीं है। यह विशेषता श्रवणबेलगोल में है। भक्त-हृदय इन सब विशेषताओं को देखता है और अंत में कहता है- . 'अहा ! कैसा अच्छा यह तीर्थ है !
श्रवणबेलगोल के दर्शन करके प्रत्येक यात्री के हृदय से ऐसे ही उद्गार निकलते हैं। दक्षिण भारत में यह एक अनूठा स्थान है, जहाँ प्राकृतिक सौन्दर्य, प्राचीन शिल्पकला और ऐतिहासिक धार्मिकता गलबाहियां डालकर नृत्य कर रही हैं। ___ यहाँ के प्राचीन स्मारकों और मूर्तियों पर और भी जो लेख अङ्कित हैं वह इतिहास के लिये बड़े महत्त्व के हैं। जैन इतिहास के लिये वह खास चीज़ है। उनसे न केवल जैन मान्यता का समर्थन होता है, बल्कि कितनी ही अनूठी बातें विदित होती है।
श्रवणबेलगोल के शिलालेखों का प्रारंभ प्रायः निम्नलिखित रूप मे हुआ मिलता है। विद्वानों का मत है कि प्राचान जैनशिलालेखों का आरंभ "स्वस्ति” और 'सिद्ध" शब्द से होता है।
१ डरजैनिस्मस (बर्लिन) पृ० १३५ ।