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किरण ४]
पाणिनि, पतञ्जलि और पूज्यपाद
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पाणिनि और भाष्यकार पतञ्जलि के पूर्वोक्त समय निर्धारण में कोठारी जी ने जो उपपत्तियां दी है, उनकी आलोचना करने से पहले पाणिनि और पतञ्जलि की समकालीनता के विरोध में ही कुछ लिखना उपयुक्त होगा। उस अवस्था में उनकी बहुत सी उपपत्तियाँ स्वतः बेकार हो जायेंगी।
संस्कृत के अभ्यासियों से यह बात छिपी हुई नहीं है, कि पाणिनि-व्याकरण पर कात्यायन ने वार्तिक बनाई थीं और भाष्यकार ने अपने भाष्य में उनका व्याख्यान इत्यादि किया है। तथा महाभाष्य में कुछ ऐसी वार्तिक इत्यादि भी पायी जाती हैं, जिन्हें भाष्यकार ने कात्यायन की वार्तिकों के सम्बन्ध में उद्धृत किया है। इस प्रकार के वार्तिक आदि के रचयिता भारद्वाजीय और सौनाग आदि कहे जाते हैं। उदाहरण के लिये
(१) २-२-१८ सूत्र पर कात्यायन की तीसरी वार्तिक "सिद्ध तु क्वाङ्स्वतिदुर्गतिः वचनात्" और चौथो वार्तिक "प्रादयः क्तार्थ है। इन दोनों वार्तिकों का व्याख्यान करके पतञ्जलि लिखते है-"एतदेव च सौनागैर्विस्तरतरकेण पठितम् ।" इसका व्याख्यान करते हुए कैयट लिखता है-"एतदेवेति । कात्यायनाभिप्रायमेव प्रदर्शयितुं सौनागैरतिविस्तरेण पठितमित्यर्थः ।"
(२) १-१-२० सूत्र पर कात्यायन की वार्तिक है-“घुसंज्ञायां प्रकृतिग्रहणं शिद्विकृतार्थम् ।" इस पर पतञ्जलि लिखते है-"भारद्वाजीयाः पठन्ति-धुसंज्ञायां प्रकृतिग्रहणं शिष्टिकृतार्थम्।” यह वार्तिक कात्यायन के नियम में एक मौलिक परिवर्तन करती है।
(३) ३-१-८९ सूत्र में पाणिनि ने जो नियम बतलाया था, उसमें वृद्धि करते हुए कात्यायन लिखते है-"यचिणोः प्रतिषेधे हेतुमणिश्रीव आमुपसंख्यानम् ।" इसकी व्याख्या करने के वाद पतञ्जलि लिखते हैं-"भारद्वाजोया पठन्ति-यक्चिणोः प्रतिषेधे णिश्रन्थिग्रन्थिबामात्मनेपदाकर्मकाणामुपसंख्यानम् ।" यह कात्यायन के मत की एक तरह से आलोचना ही है जो भारद्वाजियों ने की है। इसी प्रकार के अन्य उदाहरण भी दिये जा सकते है। इनके सिवाय भाष्यकार ने 'अन्ये 'केचित्' आदि लिख कर कुछ अन्य आचार्यों के भी मतों का उल्लेख किया है। __ चार्तिकों के सिवाय महाभाष्य में बहुत सी कारिकाएं भी पाई जाती है। और जैसे सब बार्तिकों को एक लेखक की बतलाना भ्रामक है उसी तरह सब कारिकाओं को भी एक ही लेखक की बतलाना भ्रमपूर्ण है। ये कारिकाएं कात्यायन की भी नहीं कही जा सकती, क्योंकि उनमें से कुछ कारिकाएँ कात्यायन के नियमों का संग्रहरूप है, कुछ उनके विरुद्ध हैं और कुछ वार्तिकों की आलोचना करती है। एक बात और भी भ्यान में रखने योग्य है, वह यह कि पतञ्जलि ने कारिकाओं का कुछ भाग विना व्याख्या