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[ भाग ६
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प्रतिमा स्थापित कराई । समयानुसार मूर्ति के आस-पास का प्रदेश कुक्कुटसर्पों से व्याप्त हो गया, जिससे उस मूर्ति का नाम कुक्कुटेश्वर पड़ गया । धीरे-धीरे वह मूर्त्ति लुप्त हो गयी और उसके दर्शन केवल मुनियों को ही मन्त्र - शक्ति से प्राप्य हो गये । गंगनरेश राचमल्ल के मन्त्री चावुण्डराय ने इस मूर्ति का वरणन सुना और उन्हें उसके दर्शन करने की अभिलाषा हुई । पर पौदनपुर की यात्रा अशक्य जान उन्होंने उसी के समान एक सौम्य मूर्त्ति स्थापित करने का विचार किया और तदनुसार इस मूर्ति का निर्माण कराया । यही वर्णन थोडे - बहुत हेर-फेर के साथ भुजवलिशतक, भुजवलिचरित, गोम्मटेश्वरचरित, राजावलिकथे और स्थलपुराण मे भी पाया जाता है। एक बात है, जिनसेन ( ई० सन् ८३८) के आदिपुराण, पंप (ई० सन् ९४२) के कन्नड आदिपुराण, चावुण्डराय ( ई० सन् ९७८ ) के चावुण्डरायपुराण, रत्नाकरसिद्ध (ई० सन् १५५७ लगभग) के भरतेश्वरवैभव आदि मे भी बाहुबलि -सम्बन्धी कथा मिलती हैं अवश्य; पर यहाँ भरतचक्रवर्ती की कथा के सामने इनकी कथा गौण हो गई है । इन सबो मे इनके वर्णन के विषय मे तो उपर्युक्त बोप्पण पण्डित का छोटा सा काव्य ही उल्लेखनीय है ।
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भास्कर
अव देखना है कि गोम्मट शब्द का क्या अर्थ हैं और श्रवणबेलगोल मे स्थापित बाहुबली की विशाल मूर्ति गोम्मट नाम से क्यों प्रख्यात हुई । कात्यायन की 'प्राकृतमञ्जरी' के "न्मो मः" ( ३।४२) इस सूत्र के अनुसार संस्कृत का 'मन्मथ' शब्द प्राकृत में 'गम्मह' हो जाता है। उधर कन्नड भाषा मे संस्कृत का 'ग्रन्थि ' शब्द 'गन्टि' और 'पथ' शब्द 'बट्टे' आदि मे परिवर्तित हो जाते हैं । अत एव संस्कृत के 'मन्मथ' शब्द का 'ह' उच्चारण जो उसे प्राकृतरूप मे नसीब होता है, वह कन्नड मे नही रहेगा। बल्कि वह 'ट' मे बदल जायगा । इस प्रकार संस्कृत 'मन्मथ' प्राकृत 'गम्मह' का कन्नड तद्भवरूप 'गम्मट' हो जायगा । और उसी 'गम्मट' का 'गोम्मट' रूप हो गया है । क्योकि बोलचाल को कन्नड मे 'अ' स्वर का उच्चारण धीमे 'ओ' की ध्वनि में होता है । जैसे – 'मगु' = 'मोगु', 'सप्पु ' = 'सोप्पु' इत्यादि ।
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उधर कोंकणी और
पंकी राय में वर्तमान निजाम सरकार के निजामाबाद जिलान्तर्गत बोधन- नामक एक छोटा सा ग्राम है । (दग्रं - क्रमश. जैन एण्टिकचेरी, भाग ३, किरण ३ तथा 'कठीरव' के सन् १९३८ का दसहरा विशेषांक, पृ० ५२-५३) अगर निजामराज्यान्तर्गत 'बोधन' ही प्राचीन पौढनपुर होता तो क्या आचार्य नेमिचन्द्र जैसे विद्वान भी निकटवर्ती स्थान मे अपरिचित होते. क्योकि इन्हों ने अपने गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड गाथा सं० ६८) में इस मूर्ति को 'दक्णिकुडजिणो' स्पष्ट लिखा है । अन्यान्य विद्वानों की कृतियों मे भी इसका समधन दृष्टिगोचर होता है। इससे मालूम होता है कि 'उत्तरकुक्कटजिन' भी कोई अवश्य थे । श्रीयुत गोविन्द पे इसकी और श्रवश्य ध्यान दे । 1
कैसे होते इस बात को जानने के लिये काकल के चतुर्मुख-बसदि (मन्दिर) की दीवाल मैं उत्कीर्ण धनके चित्रों को या श्रवणबेलगोल के शासन-सग्रह मे दिये हुए २६ व चित्र को देख ।