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भास्कर
भाग ६
एवं तमिलु देश मे हुई थी। खासकर दिगम्बर-सम्प्रदाय के साहित्य-भाण्डागार को भरने को सुयश दाक्षिणात्य दिगम्बराचार्यों को ही प्राप्त है। उस जमाने मे सबों का केन्द्र यही श्रवणवेल्गोल रहा है। ___ अव उपर्युक्त विन्ध्यगिरि मे विराजमान श्रीगोम्मट या गोम्मटेश्वर-प्रतिमा को लीजिये। यह दिगम्वर, उत्तराभिमुख, खड्गासन मूर्ति अखिल विश्व में एक कौतूहलोत्पादक वस्तु है । सिर के बाल धुंघराले, कान बड़े और लंबे, छाती चौड़ी, लम्वी बाहु नीचे को लटकती हुई और कमर कुछ पतली है। मुख पर अलौकिक कान्ति एवं शान्ति का साम्राज्य है। घुटनों से कुछ ऊपर तक भामियों दिखाई दे रही हैं, जिनसे सर्प निकलते दृष्टिगोचर होते हैं। दोनों पैरो
और बाहुओं से माधवीलता लिपटी हुई है। फिर भी मुख पर ध्यान-मुद्रा की स्थिरता दर्शनीय है। प्रतिमा क्या है, मानो तपस्या का जीता-जागता एक अनूठा निदर्शन है। दृश्य बड़ा ही हृदयग्राही है। सचमुच शिल्पी ने अपने इस अपूर्व प्रयत्न मे अभूतपूर्व एवं आशातीत सफलता पायी है। बड़े-बड़े पाश्चात्य विद्वानों का मस्तिष्क भी इस मूर्ति-निर्माण-कला को देख कर चकरा गया है। स्थापत्य-कला के मर्मज्ञों का कहना है कि संसार मे मिश्र मूर्तिकला के लिये पथप्रदर्शक माना गया है। फिर भी इस मूर्ति की कला के सामने वह नतमस्तक है। इतने लम्बे-चौड़े और गुरुतर पाषाण पर सिद्धहस्त शिल्पी ने जिस नैपुण्य से अपनी छेनी चलाई है, उससे भारतीय मूर्तिकारों का मस्तक हमेशः गर्व से ऊँचा रहेगा। वास्तव में यह जैनियों के लिये ही नहीं, प्रत्युत समस्त आर्यजाति के लिये एक अपूर्व गौरव की वस्तु है। बल्कि जिस मैसूर राज्य मे यह अनुपम मूर्ति विराजमान है उसके लिये एकमात्र अभिमानकारफ बहुमूल्य रत्न है। __५७ फुट की मूर्ति खोद निकालने योग्य पाषाण कहीं और जगह से लाकर इतने ऊँचे पर्वत पर प्रतिष्ठित किया गया होगा, यह सम्भवपरक नहीं ज्ञात होता। बल्कि यह अनुमान करना सर्वथा समुचित जान पड़ता है कि इसी पहाड़ पर प्रकृति-प्रदत्त स्तम्माकार चट्टान को काट कर ही यह मूर्ति बनायी गयी है। मगर सोचिये, सीधे खड़े एक कठिनतम वृहदाकार चट्टान को चारो ओर से काटते हुए इसी खड़ी दशा मे शास्त्रोक्त प्रमाण से नाप-जोख कर *-सशमितपतो नाग्वान् वनवल्लोततान्तिकः ।
वल्मीकरन्ध्रनिस्सर्पत्सपैरासीद्भयानक ॥१०॥ दधान स्कन्धपर्यन्तलम्बिनीः केशवलरीः । सोऽन्यगादूढकृष्णाहिमण्डल हरिचन्दनम् ॥१०॥ माधनीलतया गादमुपगृढ प्रफुल्लया। गारगयाहुभिराचेप्ट्य सधीच्येव सहासया ॥११०॥ -(आदिपुराण, पर्व ३६)