Book Title: Jain Siddhant Bhaskar
Author(s): Hiralal Jain, Others
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 15
________________ किरण ४ ] श्रवणबेलगोल एवं यहां की श्रीगोम्मट - मूर्ति २०७ 1 पूर्वजों ने बड़ी दूरदर्शिता से काम लिया । यों तो कोई भी धर्म देशकालादि के वायुमण्डल से बचकर यथावत् विशुद्ध नहीं रह सका है । प्रत्येक धर्म मे दूसरे धर्म की कुछ न कुछ छाप है अवश्य | हिन्दूधर्म पर भी अहिंसा धर्म का प्रभाव आदि जैनधर्म की देन लोकमान्य तिलक जैसे प्रगाढ़ हिन्दू विद्वानों ने मुक्तकंठ से स्वीकार की है । अपने सम्यक्त्व को किसी प्रकार से दूषित नहीं करने वाले आचरणों को अपनाना अनुचित नहीं है * यो घोषित करते हुए आचायों ने उक्त क्रियाओं को अपने सिद्धान्तानुकूल बनाने की काफी चेष्टा की है और उसमे सफल भी हुए है। खैर, मै पाठकों को विपयान्तर में ले जाना नहीं चाहता । यद्यपि श्रवणबेल्गोल के लेखों का मूल प्रयोजन धार्मिक है, फिर भी ये इतिहास-निर्माण के लिये भी कम महत्त्व की चीज नहीं है । यहाँ के संगृहीत लेखों मे लगभग एक सौ लेख मुनियों, अर्जिकाओं, श्रावक एवं श्राविकाओं के समाधिमरण के स्मारक हैं; लगभग एक सौ मन्दिर निर्माण, मूर्ति-प्रतिष्ठा, दानशिला, वाचनालय. मन्दिरों के दरवाजे, परकोट, सीढ़ियों, रंगशालायें, तालाब, कुण्ड, उद्यान एवं जीर्णोद्धारादि कार्यों के यादगार है; अन्य एक सौ के लगभग मन्दिरों के खर्च, जीर्णोद्धार, पूजा, अभिषेक और आहारदान आदि के लिये ग्राम, भूमि तथा रकम के दान के स्मृति-रूप मे हैं; लगभग एक सौ साठ संघों और यात्रियों की तीर्थयात्रा के स्मरण-चिह्न है; शेष चालीस लेख ऐसे हैं जो या तो किसी आचार्य, श्रावक या योद्धा के प्रशंसा-परक हैं । इसी से पाठक समझ सकते हैं कि इतिहास और इन लेखों मे कितना निकट एवं घनिष्ठ सम्बन्ध है । बल्कि जैन इतिहास की अनेक जटिल गुत्थियों यहीं के लेखों से सुलझ पायी हैं। गंग, राष्ट्रकूट, चालुक्य, होयूसल, विजयनगर, मैसूर, कदम्ब, नोलम्ब, पल्लव, चोल, कोंगाल्व, चंगाव आदि बड़े से बड़े और छोटे से छोटे राज-वंश से श्रवणबेलगोल का कुछ न कुछ सम्बन्ध अवश्य रहा है। इन सम्बन्धों का विस्तृत विवरण यहाॅ के अन्यान्य लेखों में स्पष्ट अंकित है। इसी प्रकार श्रवणवेल्गोल के लेखों में उत्कीर्ण आचार्य परम्परा भी विशेष महत्त्वपूर्ण है । इसमें भिन्न-भिन्न संघ के अनेक प्रसिद्ध प्रसिद्ध दिगम्बराचार्य आ गये हैं । यह है भी स्वाभाविक । क्योंकि भूतबलि, पुष्पदन्त, कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलङ्क, विद्यानन्दी, वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, महावीराचार्य, पुष्पदन्त (अन्य), नेमिचन्द्र, वादीभसिंह आदि दिगम्बर-सम्प्रदाय के जितने प्रधान प्रधान आचार्य हुए हैं, वे सब प्राय कर्णाटक या तमिलुदेश के निवासी थे । बल्कि अन्तिम तीर्थङ्कर श्रीमहावीर स्वामी की द्वादशाङ्गवाणी का अवशिष्टरूप, धवलादि सिद्धान्त ग्रन्थों का मूलाधार षट्खण्डागम को रचना भी विक्रमीय द्वितीय शताब्दी में बनवासि (कर्णाटक) * " सर्व एव हि जैनानां प्रमाण लौकिको विधिः । यस सम्यक्त्वहानिर्न न यत्र व्रतदूपणम् ॥” (आचार्य सोमदेव )

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