Book Title: Jain Siddhant Bhaskar
Author(s): Hiralal Jain, Others
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 17
________________ किरण ४ ] . श्रवणबेल्गोल एवं यहां की श्रीगोम्मट-मूर्ति २०९ इतनी सुन्दर विशालकाय प्रतिमा का निर्माण करना बड़े ही साहस का काम है। इस कठिनाई को अनुभव केवल एक भुक्तभोगी कुशल मूत्ति-निर्माता ही कर सकता है-सब कोई नहीं। आरा मे अभी थोड़े ही रोज हुए इन्हीं गोम्मटेश्वर की लगभग १५ फुट की श्वेतशिला की मूर्ति जो जयपुर से बन कर आई है, इसी की कठिनाई का इतिहास सुन कर बहुत से पाठक आश्चर्यित हुए विना नही रहेगे। श्रवणबेल्गोल की यह मूर्ति लगभग एक हजार वर्ष से धूप, हवा और पानी आदि का सामना करती हुई अक्षुण्ण रह मालूम पड़ती है मानों अमर शिल्पी के द्वारा आज ही उत्कीर्ण की गयी है। इस मूर्ति के दोनों बाजुओं पर यक्ष और यक्षी की मूर्तियों है, जिनके एक हाथ मे चमर दूसरे मे कोई फल है। यह मूर्तियों भी कला की दृष्टि से बहुत ही सुन्दर है। मूर्ति के सम्मुख का मण्डप नव सुन्दर रचित छतों से सजा हुआ है। आठ छतों पर अष्टदिक्पालों की मूर्तियाँ हैं और नवी छत पर गोम्मटेश के अभिषेक के लिये हाथ मे कलश लिये हुए इन्द्र की मूर्ति । ये छतें बड़ी कारीगरी की बनी हुई है। गोम्मटेश्वर-मूर्ति को निश्चित प्रतिष्ठा-तिथि के सम्बन्ध मे विद्वानों मे मत-भेद है। इसी किरण मे अन्यत्र प्रकाशित कुछ लेखों में कतिपय विद्वानों ने इस पर प्रकाश डाला भी है। सुहृद्वर श्रीयुत गोविन्द पै मंजेश्वर का मत है कि इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा ईस्वी सन् ९७८ और ९८६ के बीच मे ९८१ के मार्च की १३ तारीख रविवार को हुई होगी। अब विचार करना है कि गोम्मट स्वामी कौन थे और उनकी मूर्ति यहाँ किसके द्वारा, किस प्रकार प्रतिष्ठित की गयी। इसका कुछ विवरण लेख नं० ८५ (२३४) मे पाया जाता है। यह लेख एक छोटा सा सुन्दर कन्नड काव्य है जो सन् १९८० ई० के लगभग बोप्पण कवि के द्वारा रचा गया था। इसके वर्णनानुसार गोम्मट पुरुदेव अपर नाम ऋपभदेव' प्रथम तीर्थङ्कर के पुत्र थे। इनका नाम बाहुबली या भुजबली भी था। इनके ज्येष्ठ भ्राता भरत थे। ऋषभदेव के दीक्षित होने के पश्चात् भरत और बाहुबली दोनों भ्राताओं मे साम्राज्य के लिये युद्ध हुआ, जिसमें बाहुबली की विजय हुई, पर संसार की वासना से विरक्त हो उन्होने साम्राज्य को अपने ज्येष्ठ भ्राता भरत को सौंप दिया और आप तपस्या करने वन मे चले गये। थोड़े ही काल में घोर तपस्या के द्वारा उन्होंने केवल-ज्ञान प्राप्त किया। भरत ने, जो अब चक्रवर्ती हो गये थे, पोदनपुरमे स्मृति-स्वरूप उनकी शरीराकृति के अनुरूप ५२५ धनुष प्रमाण की एक १-ऋपभदेव का वर्णन भागवतपुराण, पञ्चम स्कन्ध, अध्याय ३–७ में भी विस्तारपूर्वक मिलता है। २-जैनपुराणों में पोदन, पौदन एव पौदन्य-बौद्धग्रन्थों में दक्षिणापथस्थ अश्मकदेश की राजधानी पोतन या पोतलि-भागवतपुराण में इक्ष्वाकुवशीय अश्मक की राजधानी पौदन्य नाम से विख्यात यह नगर मिसवर श्रीयुत वा० कामताप्रसादजी के मत से विन्ध्य के उत्तरवर्ती तक्षशिला एव श्रीयुत मृहद्धर गोविन्द

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