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पूर्व पीठिका
५. नारी दोष निर्देश :- तुलसी दास ने रामचरितमानस में नारी के दोषों को आठ वर्गों में रखकर वर्णित किया है। वे दोष हैं:- साहस, अनत, चपलता, माया, भ्रम, अविवेक, अशौच और अदया। कैकेयी का दुराग्रह तथा सीता का स्वर्णमृगार्थ ठ विनाशक सिद्ध हुए। स्त्रियां विवेकहीनता के कारण अस्थिरता, उत्सुकता, यौन प्रवृत्ति तथा पर पुरूष आकर्षण जैसे दूषणों से घिर जाती हैं। स्त्रियों को रामायण में भी फूट की निर्मात्री कहा गया है। सीता के कटु वचनों के उत्तर में लक्ष्मण ने पंचवटी में कहा था- स्त्रियां भाइयों में अलगाव करा देती हैं। किंतु ये अवगुण नारी जाति के न होकर अमुक नारी विशेष तक ही सीमित हैं। कतिपय स्त्रियों के विकारों के आधार पर तत्कालीन समग्र नारी वर्ग का मूल्यांकन करना उसका अवमूल्यन होगा अन्यथा, रामायणकाल में योग रूप में नारी का जो स्वरूप रहा उसे देवत्व के समीप का स्वरूप कहा जा सकता है। वह स्वरूप तो ऐसे सद्गुणों से संयुक्त है कि युग-युग में भारतीय नारी का दिग्दर्शक बना हुआ है जिसका महत्व चिरंतन शाश्वत है। १.१.५ महाभारत कालीन नारियां :
रामायण और महाभारत काल के मध्य लगभग तीन सहस्त्राब्दियों का अंतराल माना जाता है। इस दीर्घ कालान्तर में भारतीय जीवन मूल्यों में बड़ा बदलाव आया । राम कहते थे कि भरत राजा बनेगा, मैं नहीं और भरत कहते थे कि राम राजा बनेंगें मैं नहीं। दोनों उस काल में एक दूसरे को राजा बनाना चाहते थे, स्वयं राजा बनना नहीं चाहते थे। महाभारत काल में यह त्याग भावना स्वार्थ भावना में बदल गई। एक भाई दूसरे भाई से कहता था - तूं नहीं मैं राजा बनूंगा। इसी प्रकार दूसरा भाई भी कहता था । भौतिक सुखोपभोग के लिए मनुष्य नीति अनीति का भेद भी विस्मत करता जा रहा था । नारी स्थिति के इतिहास क्रम में महाभारतकालीन परिवर्तन एक महत्वपूर्ण मोड़ माना जा सकता है।
अ. कन्या का शुभ स्वरूप :- रामायणकाल की भांति ही इस काल में भी मंगल अवसरों पर कन्यादर्शन, कार्यसिद्धि के लिए कुमारी कन्याओं द्वारा कर्ता का अभिनंदन, कार्यारम्भ के समय कराया जाता था । कन्यायें माता-पिता तथा परिजनों की अत्यंत स्नेह पात्र होती थी । कन्याएं भी अपने पितकुल के लिए सर्वस्व परित्याग करने के लिए तत्पर रहतीं थीं । शर्मिला ने कुल प्रतिष्ठा की रक्षार्थ देवयानी का दासत्व आजीवन स्वीकार किया ।
ब.
कौमार्य पावनता का प्रश्न :- इस काल में कन्या की मांगलिकता का आधार उसका कौमार्य ही था। कौमार्य - पतन राज्य के पतन का सशक्त कारण बन जाता है। यदि कन्या स्वयं सहकारी रूप से प्रतिभागी हो तो उसे ब्रह्महत्या के पाप का तिहाई पाप लगता है। कुंती, द्रौपदी आदि के कौमार्य अवस्था में समागम को अपावन नहीं माना गया।
म. विवाह संस्कार :- रामायणकाल की तरह महाभारतकाल में भी विवाह के आठ प्रकार प्रचलित थे, अंतर यह था कि रामायणकाल में निम्न और हेय कोटि के विवाहों का प्रचलन अत्यल्प एवं नहींवत् था तथा महाभारतकाल में उनका प्रचलन कुछ बढ़ गया था, किंतु ऐसे विवाहों की निंदा ही होती थी ।
क. पति-पत्नी संबंध :- इस युग में स्त्रियों को पूजा योग्य माना गया था । तथा स्त्रियों को अलंकृत करना, पुरूषों का कर्तव्य था । भरण के दायित्व के कारण वह भर्ता और पालन करने के कारण पति कहलाता रहा। पत्नी रक्षा के दायित्व निर्वाह में असमर्थ पति नरकगामी होता है, निंदनीय होता है तथा पत्नी द्वारा भर्त्सना प्राप्त करताहै । निष्क्रिय पांडवों की द्रौपदी द्वारा भर्त्सनाकी गई थी। स्त्री पुरूष के नियंत्रण में तो थी किंतु यह नियंत्रण अमर्यादित नहीं रहा। इस युग में भी पति सेवा पत्नी की प्रमुख प्रवृत्ति रही, साथ ही उसके पति - प्रेम में अनन्यता का भाव भी ध्रुव रूप में रहा। पतिव्रता स्त्री को परपुरूष देखना भी चाहे तो उसकी अभिलाषा पूर्ण नहीं हो पाती थी। पति के दोष निवारण में आदर्श पत्नी अग्रणी रहती, किंतु वह पत्नी, पति को अपना शासित नहीं बनाती थी । पत्नी - शासित पति निंदा और अपयश ही प्राप्त करता है। पत्नी के धन पर स्वयं उसका अधिकार था। भार्योपजीवी पुरूषों को गोहत्या के समान पाप लगता था । इस काल में राजा को कन्याओं का उपहार देने का प्रचलन था। यज्ञ कराने वालों को भी कन्याएं दान में दी जाती थीं किंतु पत्नी का दान किया जाना प्रचलित नहीं था। द्रौपदी पर दुर्योधन का अधिकार अवांछित और घोर निंदनीय घटना थी ।
ख. महाभारत काल में नारी की स्थिति का ह्रास :- स्त्री की हीनदशा पूर्वापेक्षा अधिक अंकित हुई, । भीष्म पितामह का कथन है कि वचन से, वध से बंधनों से विधि-क्लेशों से नारी की रक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि वे सदा असंयत हैं । युधिष्ठिर
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