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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
कर लेती थीं। रामायणकाल में भी स्त्रियों के लिए पर्दे में रहने का विधान नहीं मिलता, राक्षस स्त्रियां किसी हद तक इसकी अपवाद कही जा सकती थी। रामायण में एक स्थल पर वाल्मीकि खेद व्यक्त करते हैं कि जिस सीता को नभचर भी देख नहीं पाते थे, उसे आज पथचर देख रहे हैं। इस कथन से पर्दा प्रथा के अस्तित्व का संकेत मिलता है किंतु इसे राजसी जीवन की भव्यता का सूचक ही अधिक कहा जा सकता है। स्त्रियां यज्ञ महोत्सव, स्वयंवर, विवाह समारोहादि विशिष्ट अवसरों पर अवगुंठनहीन अवस्था में उपस्थित होती थीं। सीता श्रीराम के संग अवगुंठनहीन अवस्था में विचरण करती थी,। मात्र विभीषण ने राम के पास उन्हें पर्दे में भेजा जो राक्षस समाज में पर्दा प्रथा का संकेत करता है। पर्दा प्रथा का एक हेतु नारी के विमल रूप को दुष्टों की कुदृष्टि से रक्षित करना था। रामायणकाल में तो नारी अपने चरित्रबल में आत्म रक्षार्थ सबल थी तेज से ही लंका में भी सीता ने अपने सतीत्व की रक्षा कर ली थी। अतः रामायण काल में स्त्रियों के लिए कोई रोक टोक नहीं थी। ज्यों ज्यों नारी की सबलता और आत्म रक्षा की क्षमता कम होती गई, त्यों-त्यों पर्दा सबल होता गया। इस प्रकार रामायण काल में कोई बाह्य प्रतिबंध पर्दे के नाम से नहीं था।
२. नारी पर पुरूष वर्चस्व का प्राबल्य :- रामायणकाल में नारी वर्चस्व में हास होने लगा था। पुरूष उस पर संपत्तिवत् अधिकार रखकर उपहार स्वरूप आदान प्रदान करता था। पिता द्वारा कन्यादान के साथ अनेक कन्याएं और दासियां उपहार में दी जाती थीं। श्री राम ने वनगमन के समय ऋषि को उपहार में अनेक कन्याएं दी। अश्वमेघ यज्ञों में तो पुराहितों को राजा अपनी रानियां भी दान करते थे। प्रदत्त कन्याएं अपने नये स्वामी के घर में दासीवत् सेवा कार्य करती हुई सर्वथा गौरव हीन जीवन व्यतीत करती थी। यद्यपि उनसे यौन तृप्ति का प्रयोजन नहीं रहता था, तथापि उनके गौरव और मर्यादा को निम्न तो कर ही देता था। राक्षसों द्वारा नारी अपहरण, शील भंग एवं मृत भाई की भार्या से विवाह कर लिया जाता था। देवतागण मृर्त्यलोक की सुंदरियों से आकृष्ट रहते तथा मृर्त्यलोक के नर अप्सराओं के संग प्रणय के लिए लालायित रहते थे। पुरूष की नजर में स्त्री का भोग सामग्री रूप ही महत्त्वपूर्ण था, ऐसा इससे स्पष्ट होता है।
श्री राम ने कहा था कि- मैं राज्य ही क्या, पिता की आज्ञा से पत्नी भी भरत को दे सकता हूँ। लक्ष्मण के शक्ति आघात से मूर्छित होने पर राम ने कहा था कि स्त्री और बांधव तो सर्वत्र मिल जाते हैं, किंतु सहोदर नहीं मिल सकता । आत्म सम्मान के लिए, लोकापवाद के भय से सीता का परित्याग आदि प्रसंगों से नारी के गौरव में आए हृास का परिचय मिलता है। इस युग में अपहरण जघन्य अपराध माना जाता था, जिसका परिणाम सर्वनाश होता है। जैसे; सीता का हरण रावण के लिए सर्वनाश का कारण बना।
३. नारी का परम गौरव, मातृत्व :- नारी का मातृत्व रूप अत्युच्च वरदान है। रामायणकाल में भी विवाह का चरम और परम लक्ष्य सुयोग्य और सद्गुणी संतान पैदा करना था। नारी पुत्र रूप में पति को ही पुनर्जन्म देती है। पुत्र से अतिशय समता रखती है। माताएं पत्र और पति के प्रेम में से पति प्रेम को प्राथमिकता देती थी, जो नारी आदर्श है। इस आदर्श की अवहेलना करने पर ही कैकेयी निंदा भर्त्सना की पात्र हो गई थी। पुत्र को संस्कारशील बनाने हेतु माता गर्भकाल में ही वेदों और शास्त्रों का श्रवण,-मनन और पठन पाठन करती थी तथा आचार विचार की पवित्रता का ध्यान रखती थी। रावण की माता अपनी दुष्प्रवृत्तियों के परिणाम स्वरूप ही रावण और कुंभकर्ण जैसे दुराचारियों को जन्म देकर अपयश की भागी बनी। अतः सफल मातृत्व सुसंतति में ही निहित माना जाता था।
४. विधवाओं की स्थिति :- रामायण काल में सामाजिक, धार्मिक एवं मांगलिक कार्यों में विधवाओं की उपस्थिति न वर्जित थी न ही अशुभकर मानी जाती थी। राम-सीता के अयोध्या आगमन पर, विधवा माताओं ने आरती उतारकर उनका स्वागत किया तथा श्रीराम का राज्याभिषेक भी किया। राक्षसों में पुनर्विवाह की प्रथा थी। रावण ने कई राजाओं का वध करके उनकी विधवाओं के साथ विवाह रचाए। वानरों में भी यह प्रथा थी। आर्यों में पुनर्विवाह की कल्पना तक भी नहीं थी। विधवा स्त्रियां संयम, व्रत तपादि में बहुत आगे निकल जाती थीं और समाज का अधिक सम्मान उन्हें प्राप्त होता था। कैकेयी के प्रति दशरथ का यह कथन कि "मेरी मृत्यु के पश्चात् तूं पुत्र के साथ राज्य करना" इस तथ्य को प्रकट करता है कि सती प्रथा सामान्य नहीं थी। इस विकल्प को अपनानेवाली स्त्रियों की संख्या अत्यल्प थी।
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