Book Title: Jain Sanskrit Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 8
________________ आमुख गुण तथा परिमाण में विपुल होता हुआ भी, जैन विद्वानों द्वारा रचित संस्कृतसाहित्य, अधिकांश में, उपेक्षित है। जहाँ जैनेटर अध्येताओं ने इसे साम्प्रदायिक अथवा प्रचारवादी कह कर इसका अवमूल्यन करने की चेष्टा की है, वहाँ जैन विद्वानों का उत्साह दार्शनिक तथा धार्मिक साहित्य पर ही अधिक केन्द्रित रहा है। ललित साहित्य की ओर उनकी विशेष प्रवृत्ति नहीं है, यद्यपि जन लेखकों ने काव्य, नाटक, चम्पू, व्याकरण, छन्द, अलंकार, कोष आदि ललित तथा शास्त्रीय साहित्य की सभी विधाओं के मूल्यवान् ग्रन्थों से साहित्यिक निधि को समृद्ध बनाया है। अकेले आचार्य हेमचन्द्र ने उपर्यक्त प्रायः सभी विषयों से सम्बन्धित इतने विशाल साहित्य का निर्माण किया है कि वह कई शोध-प्रबन्धों को उपयोगी सामग्री प्रदान कर सकता है। इस वैविध्य, व्यापकता तथा गुणात्मकता के कारण संस्कृत साहित्य के क्रमबद्ध इतिहास के ज्ञान, विकासमान प्रवृत्तियों के क्रमिक अध्ययन और तथाकथित सुप्त युगों की साहित्यिक गतिविधि से परिचित होने तथा उसकी समग्रता का यथार्थ मूल्यांकन करने के लिये जैन संस्कृत-साहित्य की उपयोगिता स्वतः स्पष्ट है। फिर भी अधिकतर आलोचक जैन ललित साहित्य के अनुसन्धान की ओर प्रवृत्त नहीं हुए, यह आश्चर्य की बात है। डॉ० नेमिचन्द्र जैन ने संस्कृत-काव्य के विकास में जैन कवियों के योगदान का मूल्यांकन करने का भगीरथ प्रयत्न किया है, किन्तु पन्द्रह-सोलह शताब्दियों की विराट् काव्यराशि के सभी पक्षों के साथ एक ग्रन्थ के सीमित कलेवर में न्याय कर पाना सम्भव नहीं है। इसीलिये प्रतिपाद्य की विशालता के कारण यह ग्रन्थ आलोच्य काल के काव्य का सकल चित्र प्रस्तुत करने की बजाय उसकी रूपरेखा-मात्र बनकर रह गया है। ज्ञात तथा अप्रकाशित जैन साहित्य का सर्वांगीण विमर्श स्वतन्त्र ग्रन्थों के द्वारा ही किया जा सकता है। सौभाग्यवश सुधी विद्वानों ने इस दृष्टि से जैन संस्कृत-साहित्य के अध्ययन में रुचि प्रदर्शित की है। पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी द्वारा छह खण्डों में जैन साहित्य के बृहद् इतिहास का प्रकाशन, इस दिशा में, परम सराहनीय कार्य है। तेरहवींचौदहवीं शताब्दी के जैन संस्कृत-महाकाव्यों पर रचित डॉ० श्यामशंकर दीक्षित के शोधप्रबन्ध का प्रथम भाग प्रकाशित हो चुका है । प्रस्तुत ग्रन्थ उस शृंखला की दूसरी कड़ी है । यह हमारे शोध-ग्रन्थ का परिष्कृत, वस्तुतः नवप्रणीत, रूप है, जिसे, कभी अतीत में, राजस्थान विश्वविद्यालय ने पीएच-डी. उपाधि के लिये स्वीकार किया था।

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