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महाकाव्य की समीक्षा की हमारी निश्चित प्रणाली है । प्रारम्भिक परिचय के पश्चात् महाकाव्य के स्वरूप-निर्माता तत्त्वों का संकेत करते हुए उन प्रवृत्तियों का भी उल्लेख किया गया है, जिनके आधार पर अमुक रचना को शास्त्रीय, ऐतिहासिक अथवा पौराणिक महाकाव्य माना गया है । तदुपरान्त काव्यकर्ता का परिचय देकर तथा काव्य का रचनाकाल निश्चित करके कथावस्तु के निर्वाह, रसविधान, प्रकृतिचित्रण, चरित्रचित्रण तथा भाषा-शैली की कसौटी पर महाकाव्यों का मूल्यांकन किया गया है। विभिन्न महाकाव्यों के विवेचन में, इन तत्त्वों के क्रम में, उनकी महत्ता के अनुरूप, कमबेश परिवर्तन करने की स्वतन्त्रता हमने अवश्य ली है। जिन महाकाव्यों में समसामयिक समाज की मान्यताओं अथवा जैन धर्म एवं दर्शन का प्रसंगवश निरूपण हुआ है, उनका विश्लेषण भी विवेचन के अन्तर्गत यथास्थान किया गया है । ऐतिहासिक महाकाव्य की सार्थकता उसके इतिहास एवं काव्यत्व की समान सफलता में निहित है। अतः ऐतिहासिक महाकाव्यों का कवित्व की दृष्टि से मूल्यांकन करने के पश्चात् उनकी ऐतिहासिकता की प्रामाणिकता का परीक्षण भी किया गया है । जैनाचार्यों के जीवनवृत्त पर आधारित कतिपय महाकाव्यों की समीक्षा में भी इसी प्रणाली को अपनाया गया है । इस युग के महाकाव्यों ने पूर्ववर्ती प्रख्यात महाकाव्यों की धरोहर को किस प्रकार आत्मसात् किया है, इसका विशद विवेचन हमने यथाप्रसंग किया है। विवेचित महाकाव्यों के आधार-स्रोतों को खोजकर उनसे, सम्बन्धित काव्य के कथानक के विनियोग तथा भाव एवं भाषागत साम्यासाम्य का विमर्श, प्रथम बार इस ग्रन्थ में मिलेगा। यथाप्रसंग विदित होगा कि महापुराण तथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित प्रस्तुत महाकाव्यों के मुख्य स्रोत रहे हैं। तुलनात्मक अध्ययन रोचक होने पर भी कितना कष्टसाध्य होता है, इसका आभास प्रबन्ध के प्रासंगिक अंशों से होगा। इस प्रकार विवेचन को यथाशक्य सम्पूर्ण बनाने का प्रयत्न किया गया है । समीक्षा का कलेवर सर्वत्र कृति की महत्ता तथा विषयसमृद्धि के अनुरूप है । उसमें विभिन्न महाकाव्यों से सम्बन्धित सभी आवश्यक बातें समेटने की तत्परता है । विस्तार के प्रति हमारा आग्रह नहीं है, किन्तु कतिपय महाकाव्य इतने सुन्दर हैं कि उन पर विस्तार से लिखना अनिवार्य हो जाता है।
विवेच्य युग में दो प्रकार के महाकाव्य प्राप्त हैं। एक तो वे, जो अभी तक अप्रकाशित हैं और हस्तलिखित प्रतियों के रूप में, देश के विभिन्न ग्रन्थ-भण्डारों अथवा विद्याव्यसनी व्यक्तियों के निजी संग्रहों में ही, उपलब्ध हैं। दूसरे काव्य वे हैं, जो साहित्यप्रेमी श्रावकों अथवा धार्मिक एवं साहित्यिक संस्थाओं की उदारता से प्रकाशित हो चुके हैं। ग्रन्थ में जिन महाकाव्यों को अध्ययन का विषय बनाया गया है, उनमें १७ प्रकाशित हैं, शेष अप्रकाशित । हस्तप्रतियों को प्राप्त करने तथा उनके प्राचीन लेख को पढ़ने में कितनी कठिनाई होती है, यह इस क्षेत्र में काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को विदित है। भण्डारों के अधिपतियों के स्वनिर्मित नियमों की