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ग्यारह
उन सब हितैषी विद्वानों के प्रति आभार प्रकट करना मेरा नैतिक कर्तव्य है, जिनसे मुझे ग्रन्थ-प्रणयन में सहायता मिली है । प्रस्तुत ग्रन्थ जैन साहित्य के विख्यात विद्वान्, स्मृतिशेष श्रीयुत अगरचन्द नाहटा के पथप्रदर्शन तथा प्रोत्साहन का परिणाम है । मुझे जैन साहित्य में दीक्षित करने का श्रेय उन्हीं को है। अपने प्रति उनके उपकारों के लिये मैं सदैव उनका कृतज्ञ रहूंगा। डॉ० कृष्णवेंकटेश्वर शर्मा, भूतपूर्व निदेशक, विश्वेश्वरानन्द शोध संस्थान, होशियारपुर, ने अनेक साहित्यिक ग्रन्थियों का भेदन कर मेरा मार्ग प्रशस्त किया, इसके लिये मैं उनका आभारी हूँ। मुनि श्री नथमलजी (वर्तमान युवाचार्य महाप्रज्ञ), डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल, श्रीयुत दलसुखभाई मालवणिया, महोपाध्याय विनयसागर तथा स्वर्गीय प्रो० पृथ्वीराज जैन के सहयोग के बिना ग्रन्थ अधूरा रह जाता । इन महानुभावों ने मुझे दुर्लभ ग्रन्थों तथा हस्तप्रतियों के अध्ययन की सुविधा प्रदान की । मैं इन सबके प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। मेरे शोध-निदेशक, डा० सुधीरकुमार गुप्त का मार्गदर्शन तथा आशीर्वाद मुझे सदैव सुलभ रहा है । तदर्थ मैं उनका ऋणी हूं । मैं उन सब विद्वानों का भी आभारी हैं, जिनकी कृतियों का प्रयोग मैंने प्रबन्ध में किया है । सहधर्मिणी विमला ने अपनी अकादमिक तथा पारिवारिक जिम्मेवारियों के साथ-साथ मेरे दायित्वों को भी सहर्ष
ओठकर मुझे साहित्यिक कार्यों में एकाग्रमन से प्रवृत्त होने का वातावरण प्रदान किया, अतः वह भी धन्यवाद की पात्र है।
ग्रन्थ का प्रकाशन परमपूज्य आचार्य श्री तुलसी एवं युवाचार्य महाप्रजजी के आशीर्वाद का फल है। जैन विश्वभारती के कुलपति, साधुमना आदरणीय श्रीचंद जी रामपुरिया ने उस आशीर्वाद को मूर्त रूप दिया है। मैं इन पूज्यजनों की कृपा की कामना करता हुआ इनकी चरणवन्दना करता हूं।
यदि जन संस्कृत-महाकाव्य के प्रकाशन एवं मूल्यांकन में अथवा महाकाव्यपरम्परा के परिप्रेक्ष्य में जैन साहित्य के योगदान को समझने में प्रस्तुत ग्रन्थ से तनिक भी सहायता मिली, हमारा श्रम सार्थक होगा।
सत्यव्रत