Book Title: Jain Sanskrit Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 11
________________ दस बेड़ियों से इस साहित्यिक निधि को मुक्त करवाना प्राय: असम्भव है । इस कठोर बन्धन के कारण ही सुमतिसम्भव के अध्ययन के लिये उसकी फोटोप्रति से 'संतोष करना पड़ा है । कुछ प्रकाशित महाकाव्य भी अप्रकाशित जैसे ही हैं। वे अतीत में इधर-उधर मुद्रित हुए थे । उन्हें बड़ी कठिनाई से, विविध स्रोतों से, प्राप्त किया गया । उपर्युक्त महाकाव्यों का प्रथम बार इस ग्रंथ में समुचित अध्ययन किया गया है । अप्रकाशित रचनाओं के पर्यालोचन की बात तो दूर उनमें से सुमतिसम्भव, स्थूलभद्रगुणमाला, यशोधरचरित के अस्तित्व का भी अधिकतर विद्वानों को पता नहीं था । यदुसुन्दर की एकमात्र उपलब्ध हस्तप्रति की जानकारी स्वयं हमें बहुत बाद में मिली थी । मूल प्रबन्ध में यदुसुन्दर का विवेचन नहीं था । प्रकाशित महाrajों में से भी कुछ का छिट-पुट संकेत मोहनलाल दलीचन्द देसाई के 'जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास' तथा हीरालाल कापड़िया के 'जैन संस्कृत साहित्य नो इतिहास' में किया गया है । किन्तु मात्र उल्लेख सर्वांग अध्ययन का स्थानापन्न नहीं हो सकता । यह भी कतिपय सुज्ञात महाकाव्यों तक सीमित है । डॉ० गुलाबचन्द चौधरी ने 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास', भाग ६, में अपेक्षाकृत अधिक महाकाव्यों का परिचय दिया है, किन्तु कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ उनसे भी छूट गये हैं । जहाँ तक हमें ज्ञात है, केवल हम्मीरमहाकाव्य का इतिहास तथा काव्य दोनों दृष्टियों से, विस्तृत मूल्यांकन सुधी आलोचकों ने किया है। हमने उन सबका यथासम्भव अवलोकन किया है तथा आवश्यकतानुसार अपनी समीक्षा में उनका साभार प्रयोग किया है । जैन काव्य रचनाओं का महाकाव्यत्व निर्णीत करना दुस्साध्य कार्य है । जैन कवियों ने कतिपय ऐसे काव्यों को भी उदारतापूर्वक महाकाव्य घोषित किया है, 'जिनमें स्थूल लक्षणों के अतिरिक्त महाकाव्य का कोई स्वरूपविधायक तत्त्व नहीं है। इसके विपरीत कुछ रचनाएँ ऐसी हैं, जिनकी अन्तरात्मा तो काव्य की है, किन्तु उनमें बाह्य रूढ़ियों का निर्वाह नहीं हुआ है । इस विषय में हमें दण्डी का मत - न्यूनमप्यत्र यैः कैश्चिदंगे: काव्यमत्र न दुष्यति - व्यावहारिक प्रतीत होता है । जिस काव्य में कथानक महान् है, रसात्मकता है, चरित्र की उदात्तता है, भाषा-शैली में यथेष्ट परिपक्वता है, हमने उसे निस्संकोच महाकाव्य स्वीकार किया है, भले ही उनमें बाह्य नियमों का पालन न किया गया हो। जिनकी आत्मा महाकाव्य के अनुकूल नहीं है, उन्हें महाकाव्य-क्षेत्र से बहिष्कृत कर दिया गया है । जयानन्दकेवलिचरित, विक्रमचरित तथा करकण्डुचरित को महाकाव्य न मानने का यही कारण है । इन चार अध्यायों में आलोच्य महाकाव्यों के सर्वांगीण विमर्श के पश्चात्, उपसंहार में, पूर्वविवेचित महाकाव्यों पर विहंगम दृष्टि डालकर संस्कृत के प्रतिष्ठित महाकाव्यों की पंक्ति में उनके स्थान का संकेत किया गया है।

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