Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

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Page 7
________________ से लाखों रुपया कमा रही है।.......श्वेताम्बर और दिगम्बरता की दीवार केवल आग्रह की नीवपर ही चिनी हुई हैं। 'दोनों सम्प्रदायों में जो भीषण मतभेद देख पड़ता है उसका मूलकारण दोनों सम्प्रदाय के पूर्व धर्मगुरुओं और आजकल के कुलगुरुओं का दुराग्रह, स्वाच्छन्द्य, शैथिल्य और मुमुक्षताका अभाय इत्यादि के सिवा और कुछ नहीं हो सका मुझे अपने इस बदनसीव समाज की दुर्दशा का चित्र खींचते हुये बड़ा दुःख होता है।" लेखक के कैसे हृदयग्राही शब्द हैं ? चैत्यवाद नामक दूसरे स्तम्भ मे लिखते हैं-हमारा समाज मूर्ति के ही नाम से विदेशी अदालतों में जाकर समाज की अतुल धन सम्पत्ति का तगार कर रहा है । 'वीतराग मन्यासी फकीर की प्रतिमा को जैसे किसी एक बालक को गहनों से लाद दिया जाता है उसी प्रकार आभूषणों से श्रृंगारित कर उसकी शोभा मे वृद्धि की समझता है और परमयोगी वर्द्धमान या इतर किसी वीतराग की मूर्ति को विदेशी पोशाक, जाकिट, कालर वगैरह से सुसज्जित कर उसका खिलौने जितना भी सौन्दर्य नष्ट भ्रष्ट करके अपने मानव समाज की सफलता समझ रहा है। मैं इसे धर्मदम्भ और ढॉग समझता हूँ। अपने इस समाज को ऐसी स्थिति देखकर मूर्ति पूजक के तौर पर मुझे भी बड़ा दुख होता है।" चोट खाये हुये पखावज के समान लेखक के चुटीले हृदय से यह शब्द बलात् निकले है। 1 देवद्रव्यनामक तीसरे स्तम्भ में लिखा है - "जिसके कारण ही आज जैनसमाज की प्रशसा वकीलों बैरिष्टरों और अदालतों में गाई जा रही है और प्रतिदिन समाज क्षयरोग से पीडित रोगी के समाज विकराल काल की तरफ खिचा जा रहा है। मुझे सिर्फ इसी बात का खेद होता है कि जिन पवित्र निर्ग्रन्थों ने लोकहित की दृष्टि से जिस वाद को नियोजित किया था वही वाद आज हमें अपना ग्रास बना रहा है। अहो !! कैसा भीषण परिवर्तन कैसा पैशाचिक विकार ।" और अनेकान्तवाद की मुद्रा छापवालों का भी यह कैसा भ्यकर एकान्तवाद है '' यह लेखक की हृदतत्री की झकार जो अपने समाज की क्षुब्ध, पीड़ित एव सत्रस्त अवस्था से बिलोडित होने पर गूँज निकली है । आगमवाद के स्तम्भ मे अनेक ग्रन्थों की समालोचना करते हुये लिखा - "वर्तमान समय में इस प्रकार की अनेक कथाओं द्वारा उपाश्रयों में बैठकर रेशमी, खीनखाव और ज़रीके तिगड़े मे पाटकर विराजमान होकर हमारे कुलगुरु श्रोताओं को रंजित कर रहे हैं। आश्चर्य तो यह होता है कि व्यापार विद्या में अतिनिपुण are समुदाय बिना विचार किये धन्यवाणी और तहत्त वचन की गर्जनायें किस तरह करता होगा ?"

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