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भगवान् ऋषभ से पार्श्व तक
माता ने चौदह स्वप्न देखे । श्रावण-कृष्णा पंचमी को रानी ने पुत्र-रत्न का प्रसव किया। स्वप्न में रिष्टरत्नमय नेमि देखे जाने के कारण पुत्र का नाम अरिष्टनेमि रखा।
अरिष्टनेमि युवा हुए। इंद्रिय-विषयों की ओर उनका अनुराग नहीं था। वे विरक्त थे। पिता समुद्रविजय ने सोचा कि ऐसा उपक्रम किया जाये जिससे कि अरिष्टनेमि विषयों के प्रति आसक्त होकर गृहस्थ जीवन जीये । अनेक प्रयत्न किये। अनेक प्रलोभन दिये गये। पर वे अपने लक्ष्य से विचलित नहीं हुए। कुछ समय बीता । अंत में कृष्ण के समझाने पर वे विवाह करने के लिए राजी हो गए।
भोज कुल के राजन्य अग्रसेन की पुत्री राजीमती के साथ उनका विवाह निश्चित हुआ। विवाह से पूर्व किये जाने वाले सारे रोति-रिवाज सम्पन्न हुए। विवाह का दिन आया। राजीमती अलंकृत हुई। कुमार अरिष्टनेमि भी अलंकृत होकर हाथी पर आरूढ़ हुये । मंगलदीप सजाये गये। बाजे बजने लगे। वर-यात्रा प्रारम्भ हई। हजारों लोगों ने उसे देखा। वह विवाह-मंडप की ओर धोरे-धीरे बढ़ रही थी। एक स्थान पर अरिष्टनेमि को करुण शब्द सुनाई दिए । उन्होंने सारथी से पूछा -- 'ये शब्द कहां से आ रहे हैं। सारथी ने कहा-देव ! ये शब्द पशुओं की चीत्कार के हैं। वे आपके विवाह में सम्मिलित होने वाले व्यक्तियों के लिए भोज्य बनेंगे। मरण-भय से वे आक्रन्दन कर रहे हैं।'
अरिष्टनेमि का मन खिन्न हो गया। उन्होंने कहा- 'यह कैसा आनन्द ! यह कैसा विवाह ! जहां हजारों मूक पशुओं का वध किया जाता है । यह तो संसार में परिभ्रमण का हेतु है। मैं इसमें क्यों पड़ !' उन्होंने हाथी को वहां से अपने निवास स्थान की ओर मोड़ दिया। वे माता-पिता के पास गये और प्रवजित होने की इच्छा व्यक्त की। माता-पिता की आज्ञा प्राप्त करके वे तेले की तपस्या में उज्जयंत पर्वत पर सहस्राम्रवन में श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन एक हजार व्यक्तियों के साथ प्रवजित हो गए।
उन्हें चोपन दिन के बाद आश्विन कृष्णा अमावस्या के दिन कैवल्य-प्राप्ति हो गई। वे केवली बने । वे धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कर बाईसवें तीर्थङ्कर हो गए।
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