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जैन परम्परा का इतिहास पहले ही उसे कष्टों के खम्भों पर खड़ा करते हैं। जान-बूझकर जो कष्टों को न्योता देता है, उसे उनके आने पर अरति और न आने पर रति नहीं हो सकती। अरति और रति-ये दोनों साधना के बाधक हैं। भगवान महावीर इन दोनों को पचा लेते थे। वे मध्यस्थ थे। मध्यस्थ वही होता है जो अरति और रति की ओर न झुके।
भगवान् तृण-स्पर्श को सहते । तिनको के आसन पर नंगे बदन बैठते. लेटते और नंगे पैर चलते तब वे चुभते । भगवान् उनकी चुभन से घबराकर वस्त्रधारी नहीं बने।
___ भगवान् ने शीत-स्पर्श सहा। शिशिर में जब ठण्डी हवाएं फुकारे मारतीं, लोग उनके स्पर्श मात्र से कांप उठते; दूसरे साध पवन-शून्य स्थान की खोज और कपड़ा पहनने की बात सोचने लग जाते । कुछ तापस धूनी तपकर सर्दी से बचते ; कुछ लोग ठिठुरते हुए किवाड़ को बन्द कर विश्राम करते । वैसी कड़ी और असह्य सदी में भी भगवान् शरीर-निरपेक्ष होकर खुले बरामदों और कभी-कभी खुले द्वार वाले स्थानों में बैठ उसे सहते ।
भगवान् ने आतापनाएं लीं । सूर्य के सम्मुख होकर ताप सहा। वस्त्र न पहनने के कारण मच्छर और क्षुद्र जन्तु काटते, वे उसे समभाव से सह लेते।
भगवान् ने साधना की कसौटी चाही । वे वैसे जनपदों में गए, जहां के लोग निग्रंथ साधुओं से परिचित नहीं थे। वहां भगवान् ने स्थान और आसन संबंधी कष्टों को हंसते-हंसते सहा । वहां के लोग रूक्ष भोजी थे, इसलिए उनमें क्रोध की मात्रा अधिक थी। उसका फल भगवान् को भी सहना पड़ा। भगवान् वहां के लिए पूर्णतया अपरिचित थे, इसलिए कुत्ते भी उन्हें एक ओर से दूसरी ओर सुविधापूर्वक नहीं जाने देते । बहुत सारे कुत्ते भगवान् को घेर लेते। तब कुछेक व्यक्ति ऐसे थे, जो उनको हटाते । बहुत से लोग ऐसे थे जो कुत्तों को भगवान् को काटने के लिए प्रेरित करते। वहां जो दूसरे श्रमण थे वे लाठी रखते, फिर भी कुत्तों के उपद्रव से मुक्त नहीं थे। भगवान् के पास अपने बचाव का कोई साधन नहीं था, फिर भी वे शान्तभाव सं वहां घूमते रहे।
__ भगवान् का संयम अनुत्तर था। वे स्वस्थ दशा में भी अवमौदर्य करते-कम खाते । रोग होने पर भी वे चिकित्सा नहीं
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