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जैन परम्परा का इतिहास व्यवस्था से निवृत्त हो गए।
___ आचार्य सिद्धसेन को महाराज विक्रमादित्य बहुत सम्मान देते थे । वे उस राज्य-सभा के रत्न थे। उन्होंने बत्तीस बत्तीसियों का निर्माण कर विद्वत् जगत् को आश्चर्यचकित कर दिया। 'कल्याण मन्दिर' स्तोत्र भी उनकी ही कृति है।
कर्मार देश के शासक देवपाल ने उन्हें 'दिवाकर' की उपाधि से अलंकृत किया।
आचार्य सिद्धसेन महान् क्रांतिकारी और अनुपम कवि थे। उस समय यह उक्ति प्रचलित थी- 'अनुसिद्धसेनं कवयः'- सभी कवि सिद्धसेन के पीछे हैं, अर्थात् कवियों में सिद्धसेन ही अग्रणी हैं। इन्होंने न्याय के क्षेत्र को विस्तृत किया। न्याय विषयक अनेक ग्रंथ रचे और अनेक स्थानों पर शास्त्रार्थ कर जैन धर्म की ध्वजा को फहराया।
___इनका स्वर्गवास प्रतिष्ठानपुर में हुआ। ४. आचार्य हरिभद्र
इनका समय विक्रम की सातवीं-आठवीं शताब्दी माना जाता है । ये चितौड़ चित्रकूट] के ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे । ये राजपुरोहित थे । राजदरबार में इनकी अपूर्व प्रतिष्ठा थी।
ये वैदिक परम्परा के उद्भट विद्वान थे। इन्हें अपने ज्ञान पर गर्व था। ये अपने पास एक कुदाली, एक जाल और एक निसैनी रखते थे। कुदाली इसलिए कि यदि प्रतिद्वन्द्वी हारकर जमीन में जा छिपे तो जमीन को कुदाली से खोदकर निकाल ले । जाल इसलिए कि यदि प्रतिद्वन्द्वी जल में जा छिपे तो उसे जाल में फंसाकर निकाल ले और निसैनी इसलिए कि यदि वह आकाश में चला जाए तो निसैनी पर चढ़कर उतार लाये । ये तीनो चिह्न उनके अहं के द्योतक
थे।
एक बार वे राजदरबार से घर आ रहे थे। रास्ते में एक जैन उपाश्रय था। यहां साध्वी-संघ की प्रवर्तनी महत्तरा याकिनी स्वाध्याय करती हुई एक गाथा का बार-बार उच्चारण कर रही थी
'चक्किदुगं हरिपणगं, पणगं चक्कोण केसवो चक्की । केसव चक्की केसव, दुचक्की केसव चक्की य॥
[इस भरत क्षेत्र में दो चक्रवर्ती, पांच वासुदेव, पांच चक्रवर्ती, एक वासुदेव, एक चक्रवर्ती, एक वासुदेव, एक चक्रवर्ती, एक वासुदेव,
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