Book Title: Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 137
________________ १३२ जैन परम्परा का इतिहास आज्ञासिद्ध हैं । ये हेतु द्वारा परीक्षणीय नहीं हैं । शास्त्र की अपरीक्षणीयता का बौद्ध आचार्यों ने सशक्त प्रतिवाद किया। उन्होंने कहा-आपके शास्त्रों में कुछ चिंतनीय है, इसीलिए आप उन पर विचार करने से कतराते हैं । यदि सोना निर्दोष है तो फिर उसको परीक्षा से डर क्यों ? उन्होंने बुद्ध के मुख से कहलाया-जैसे समझदार मनुष्य कसौटी, छेद और ताप के द्वारा परीक्षा कर स्वर्ण को लेता है, भिक्षुओ! तुम वैसे ही कसौटी, छेद और ताप के द्वारा परीक्षा कर मेरे वचन को स्वीकार करो। मैं कहता हूं, इसलिए उसे स्वीकार मत करो १. अस्ति वक्तव्यता काचित्, तेनेदं न विचार्यते । निर्दोष कांचनं चेत् स्यात, परीक्षाया विभेति किम् ? २. निकषच्छेदतापेभ्यः, सुवर्णमिव पण्डितः। परीक्ष्य भिक्षवो ! ग्राह्य, मचो न तु गौरवात् ॥ जैन आचार्यों ने इन दोनों अतिवादों से बचकर अपना चिंतन स्थिर किया। उन्होंने सूक्ष्म तत्त्व को आज्ञासिद्ध और स्थूल तत्त्व को परीक्षासिद्ध बतलाया। ___ आचार्य सिद्धसेन ने स्वतंत्र चिंतन और हेतुवाद का जो मूल्यांकन किया, वह सबको मान्य नहीं हुआ। फलतः जैन परंपरा में दो धाराएं निर्मित हो गई-सिद्धान्तवादी और तर्कवादी। सिद्धान्तवादी आगमिक प्रतिपादन को शब्दशः और अक्षरशः स्वीकार करते थे। तर्कवादी आगम के हेतुगम्य तत्त्वों की तार्किक समीक्षा भी करते थे और उनके साथ नया चिंतन भी जोड़ते थे। सिद्धान्तवादियों ने अपनी सारी शक्ति आगमिक वचनों के समर्थन में लगाई, जबकि तार्किक विद्वानों की शक्ति अपने समसामयिक दार्शनिकों के तर्कों को समझने और उनकी जैन-पद्धति से मीमांसा करने में लगी। उन्होंने दूसरे दर्शनों से कुछ लिया और उन्हें कुछ देने का प्रयत्न भी किया। यह समाहार की वृत्ति सत्य को अनेकान्त दष्टि से देखने पर ही प्राप्त हो सकती थी। आचार्य सिद्धसेन ने सत्य को व्यापक दृष्टि से देखा तभी उन्हें यह दिखाई दिया कि विश्व के किसी भी दर्शन में जो सुप्रतिपादित है, वह महावीर के वचन का ही बिंदु है। वे महावीर को एक व्यक्ति के रूप में नहीं देखते हैं । उनके लिए महावीर एक आत्मा है । आत्मा ही परम सत्य है । जहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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